गुजरी कई ढीठ बता
अपनी चाह को मिटा
पुरुष-नारी युग धर्म
वासना ही नहीं कर्म
रौंदी कामना पैर लिपटा
अपनी चाह को मिटा
जितनी मिली सर्जक थी
बातें खूब बौद्धिक की
चुनी बातें ले चिमटा
अपनी चाह को मिटा
सब सोचें वह चालाक
मेरा कर्म सिद्ध चार्वाक
कांच समझ फेंके ईंटा
अपनी चाह को मिटा।
धीरेन्द्र सिंह
01.11.2024
16.22
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