भोर में खुलती हैं पलकें
हृदय में आपका स्पंदन
पलक फिर बंद होती हैं
प्रणय का होता है वंदन
सुनती आप हैं क्या निस
नेह का उन्मुक्त निबंधन
स्मरण आपकी, आदत अब
सुगंधित, शीतल सा चंदन
उदित होतीं हृदय में क्रमशः
निज आलोक का समंजन
आप से ही प्रकाशित हूँ
तरंगित आपसे है सब नंदन
कब से बिस्तर है मुग्धित
भोर करती आपका अंजन
चिड़िया चहचहाती आप सी
करवटें ढूंढती आपका आलंबन
जगाती रोज हैं मुझको ऐसे
जैसे भोर का आपसे बंधन
बदन में टूटन अनुभूतियां भी
आप ही आप का है गुंजन।
धीरेन्द्र सिंह
25.03.2024
04.39
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