गुरुवार, 25 मई 2017

मन का आचमन हुआ, अचंभित है मन
सब कुछ मिलाकर मन को तुम कर दिया
पलकों में स्वप्न हो अधीर कर रहा विचरण
अपनी हो कोई एक राह मन ढूंढ ला दिया

जेठ की तपिश सा लगे तुम बिन होना तो
सावन की रिमझिम सा है तुमने भींगा दिया
बूंदों सा भाव टपटपाते मन में थिरक रहे
ओरी से गिरते जल सा निरर्थक बहा दिया

मिलने का यह मिलन सदियों का है चलन
जलन सीने में हो रही यह क्या जला दिया
कभी बहकने लगे मन तो हो जाए अनमन
घनघन कारे बदरा संग जिया को उड़ा दिया

सब खो गया तुम में, मैं से ढला हम में
हमने हिया में सप्तरंगी सा सजा दिया
भविष्य के डगर के हैं हम गुप्त से राही
कभी उम्मीद, कभी भय तो जय को जगा दिया।

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