किसी उम्मीद में शब् भर रहा, जलता दिया
भोर की किरणों ने, आकर जो हंगामा किया
तपिश से भर गया एहसास, एक खुशबू लिए
सुबह की लालिमा ने, ओ़स को जी भर पिया
यह क्यों होता है कैसे, लगे मौसम हो जैसे
अभी बदली,अभी धूप, लुकाछिपी सी झलकियाँ
इक आभा को लिए, शब् भर खिले चन्दा
ना जाने क्यों छुपा देती हैं, हरजाई बदलियाँ
तड़प संग आती है तरस, अकुलाई प्यासी सी
हसरतें चाहत की कटि पर, उठाये गगरियाँ
अपने पनघट की तलाश में, जाए गुजर जीवन
हौसले टूटते ना हो भले, चहुँ ओर लाचारियाँ
कैसा मोबाइल, कैसा स्कायपे, तकनीक का बंजर
मरीचिका हैं घटाती ,ना तिल भर भी दूरियां
छिटक चिनगारी सी, धू -धू लगाती आग यह
मुबारक उनको यह, गजेट जिनकी यह कमजोरियां
दिल अब भी दिल से मिलता है, तनहाईयों में
सदा आती है जाती है, मिलती देती बधाइयाँ
प्यार मोहताज़ ना रहा, कभी किसी सहारे का
ठुमक उठता है जिस्म, सुन दिलों की शहनाईयां.
भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.
अतिसुन्दर
जवाब देंहटाएंमरीचिका न घटाती हैं पल भर भी दूरियां...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति...
बहुत सुंदर काव्य है मन को झंकृत करता हुआ। बधाई
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!