सोमवार, 28 मई 2012

उम्मीद के जलते दिए


अब मेरी उम्मीद के जलते दिए
बोलकर मुझसे यह चल दिए
और ना प्रतीक्षा अब हो पाएगी
जिंदगी भ्रष्टाचार में समा जायेगी  

हर तरफ अवसर के झमेले हैं
हाँथ कंधे पर अजीब यह रेले हैं
घात और प्रतिघात बात बनाएगी
उम्मीद की लौ जल ना पाएगी

कर्म यदि प्रधान है तो विवश क्यों
भाग्य यदि विधान है तो तमस क्यों
टोलियाँ नयी बोलियां सत्य को झुटलायेंगी
न्याय धर्म परे कर बिगुल नया बजायेंगी

उम्मीद के दिए को यह जरुरी है
सत्य रहे मंद ऐसी क्या मज़बूरी है
बातियों को कर ऊँची लौ को बढ़ाएगी
यह विचार कर हुंकार भीत को ढहाएगी  





भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

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