आज पलटकर जीवन ने, दिया मुझे धिक्कार है
भारत भूमि भयभीत है, कितना भ्रष्टाचार है
जीवन के हर पग पर, पक रहा निरंतर निठुर
सत्कर्मों की सादगी, सजल, अचल, बेकार है
हर विरोध के स्वर को, लें दबोच पल भर में
निचुड़-निचुड़ कर निचुड़े, कहें यही व्यवहार है
हो विनीत सह लेने की, आदत या मजबूरी है
सहनशक्ति सह लेती सब, ना कोई तकरार है
सारे रिश्ते रिसते खिसकें, गतिशील मझधार है
और किनारे टूटें-फूटें, नावों का व्यापार है
सूखी बाती दीपक थाती, निराधार आकार है
एकजुट हो ना पाएँ, कैसा यह संसार है।
भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.
सूखी बाती दीपक थाती, निराधार आकार है
जवाब देंहटाएंएकजुट हो ना पाएँ, कैसा यह संसार है।
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति
बहुत बढ़िया रचना अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंआज के हालात का यथार्थ चित्रण किया है..
जवाब देंहटाएंयथार्थ का चित्र खीचती सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंबधाई.