मंगलवार, 17 जून 2025

शब्द ले गया

 कोई मेरा शब्द ले गया भावों के आंगन से

निर्बोला सा रहा देखता झरझर नयना सावन से

कुछ ना बोली संग अपनी टोली चुप हो ली

यहां हृदय उत्कीर्ण रश्मियां लिपटी हवन पावन से


शुद्ध हो गयी निर्जल आंखें अकुलाई थी बाहें

सृजन नया कुछ सोचा था सूखा किस छाजन से

प्रणय आग भीतर नहीं सृजन कहां हो पाता है

दो पुस्तक मिल किए प्रकाशित मुद्रण की मांगन से


टोली टूटी वह भी टूटी सत्य कुछ लिख डाला

पुस्तक मेला वर्चस्व रहे बुक स्टाल के बाभन से

दोहा, माहिया लिखनेवाला मंच का लालच दे डाला

कौन कहां है पूछता प्यार के छिपे जामन से


शब्द मेरे और भाव भी मेरे नित सुनती थी मुग्धा

साहित्यिक जीवन बातें एक वर्ष चला पावन से

साहित्यिक प्रणय सुदूर से दो वर्ष चला नियमित

मेरे शब्दों से जहान बना ली उत्कर्ष पागन से।


धीरेन्द्र सिंह

18.06.2025

03.27



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें