कोई मेरा शब्द ले गया भावों के आंगन से
निर्बोला सा रहा देखता झरझर नयना सावन से
कुछ ना बोली संग अपनी टोली चुप हो ली
यहां हृदय उत्कीर्ण रश्मियां लिपटी हवन पावन से
शुद्ध हो गयी निर्जल आंखें अकुलाई थी बाहें
सृजन नया कुछ सोचा था सूखा किस छाजन से
प्रणय आग भीतर नहीं सृजन कहां हो पाता है
दो पुस्तक मिल किए प्रकाशित मुद्रण की मांगन से
टोली टूटी वह भी टूटी सत्य कुछ लिख डाला
पुस्तक मेला वर्चस्व रहे बुक स्टाल के बाभन से
दोहा, माहिया लिखनेवाला मंच का लालच दे डाला
कौन कहां है पूछता प्यार के छिपे जामन से
शब्द मेरे और भाव भी मेरे नित सुनती थी मुग्धा
साहित्यिक जीवन बातें एक वर्ष चला पावन से
साहित्यिक प्रणय सुदूर से दो वर्ष चला नियमित
मेरे शब्दों से जहान बना ली उत्कर्ष पागन से।
धीरेन्द्र सिंह
18.06.2025
03.27
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