बुधवार, 19 मार्च 2025

मन में

 मेरे मन में

बस्तियां बेशुमार हैं

पता नहीं चलता

कहाँ से पुकार है,

पकड़ ही लेता हूँ स्त्रोत

दूर कहीं बहुत दूर

दिखता है चाँद

नहीं भी दिखता है,

चाँद ?

चाँद ही क्यों

सूर्य क्यों नहीं ?

और सितारे भी तो हैं,

देखो न तुम भी

अगर सुन रही हो मुझे,

सुनने के लिए

कान होना जरूरी नहीं

मन से भी तो सुनते हैं,


यह मन भी न 

चलती चाकी है

दरर-दरर करता 

कब किसको पीस दे

पता ही नहीं चलता,

अच्छा एक बात बताओ

क्या मैं नहीं पिसा पड़ा हूँ ?

नहीं दोगी उत्तर

उतर चुकी हो अपने भीतर

चाँद कर रहा है प्रयास

झांकने का

और सूरज चढ़ा आ रहा है।


धीरेन्द्र सिंह

20.03.2025

07.14



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