मेरे मन में
बस्तियां बेशुमार हैं
पता नहीं चलता
कहाँ से पुकार है,
पकड़ ही लेता हूँ स्त्रोत
दूर कहीं बहुत दूर
दिखता है चाँद
नहीं भी दिखता है,
चाँद ?
चाँद ही क्यों
सूर्य क्यों नहीं ?
और सितारे भी तो हैं,
देखो न तुम भी
अगर सुन रही हो मुझे,
सुनने के लिए
कान होना जरूरी नहीं
मन से भी तो सुनते हैं,
यह मन भी न
चलती चाकी है
दरर-दरर करता
कब किसको पीस दे
पता ही नहीं चलता,
अच्छा एक बात बताओ
क्या मैं नहीं पिसा पड़ा हूँ ?
नहीं दोगी उत्तर
उतर चुकी हो अपने भीतर
चाँद कर रहा है प्रयास
झांकने का
और सूरज चढ़ा आ रहा है।
धीरेन्द्र सिंह
20.03.2025
07.14
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