तल्लीन
सब हैं
अपने-अपने
स्वप्न संजोए
कुछ बोए, कुछ खोए;
खींचते जा रहा जीवन
परिवर्तित करते
कभी मार्ग कभी भाग्य
झरोखे से आती संभावनाएं
छल रही
दशकों से डुबोए,
मन को लगते आघात
देते तोड़ जज्बात
बात-बेबात
यह रिश्ते,
सगुन की कड़ाही में
न्यौछावर फड़क रहा
भुट्टे की दानों की तरह
उछाल पिरोए,
तल्लीन सब हैं
स्वयं को बहकाते
परिवेश महकाते,
कांधे पर बैठी जिंदगी
बदलती रहती रूप
कदम रहते गतिशील
कभी उत्साहित कभी सोए-सोए।
धीरेन्द्र सिंह
12.11.2024
08.15
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