शनिवार, 4 मई 2024

गर्मी सघन

 घुमड़कर बदरिया आ जा गगन

सही नहीं जाती अब गर्मी सघन



वह भी तो करतीं ना मीठी बतिया

सहज ना रहा जीवन अब शर्तिया

एकाकीपन का और कितना मनन

सही नही जाती अब गर्मी सघन


ना समझो कहूँ यह मौसम मार है

मौसम पर उपकरणों का अख्तियार है

दग्ध सूरज मन में, है बढ़ता तपन

सही नहीं जाती अब गर्मी सघन


साथ रहकर भी साथ जो रहता नहीं

पात्र करीब पर जल है बहता कहीं

प्रीत वैराग्य में नित बढ़ता दहन

सही नहीं जाती अब गर्मी सघन


ओ बदरी बरसकर हरीतिमा जगाओ

खिलना क्या होता मनमलिन को बताओ

भींगे परिवेश में दे दो वही अगन

सही नहीं जाती अब गर्मी सघन।


धीरेन्द्र सिंह

1 टिप्पणी: