शनिवार, 1 अप्रैल 2023

हवा का तमाशा

 लौ रही फड़फड़ा दिये का तकाजा है

हर कोई उड़ रहा हवा का तमाशा है


गलियों में रहा गूंज अबोला सल्तनत

बूटों का कदमताल लगे गाजा-बाजा है


मियाद वक़्त की भी चुकती रहती है

फरियाद छूट की मरती हुई आशा है


उभर पड़े हैं टीलों पर नाखून तेज धार

झपट कर सींच ले खुद को हताशा है


गुजर रही है नदी कलकल करती हुई

कश्तियाँ डूब रहीं लहरों ने हुंकारा है


कई जज्बात कई संवाद चल रहे हैं

चलने को कदम किस ने संवारा है।


धीरेन्द्र सिंह

02.04.2023

07.30

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