बुधवार, 5 जनवरी 2011

दिए की लौ में

दिए की लौ में नयन यह निरखते रहा
एक चेहरे से लिपट रात सारी जलते रहा

सियाह परिवेश को रोशन हो जाने की तरस
दिए के आसरे हर रात दिल लड़ते रहा

हैं बहुत लोग मगर पास मेरे कोई नहीं
भीड़ रिश्तों की लिए मैं से झगड़ते रहा

मिले एक अपना उजाला कि राह मिले
गैर राहों की अंधेरों से बस उलझते रहा

है उलझी राह और मंज़िल भी बहुत ऊंची
मिलेगी रोशनी यह सोच मैं चलते रहा

रात बिखरी है बेतरतीब ना जाने क्यों
बुझे ना दीप यह सोच मैं जगते रहा.

धीरेन्द्र सिंह


भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

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