गुरुवार, 25 नवंबर 2010

विवाहेतर सब्ज बाग

जब भी मिलतें हैं, होती हैं सिर्फ बातें
एक दूजे से हम खुद को छुपाते हैं
घर गृहस्थी की हो जाती है चर्चा
ना वह रुकते ना हम कह पाते हैं


जीवन के मध्य में भी ऐसा होता है
हम उन्हें बुलाएं वह मुझे सताते हैं
एक पीपल में बांध आई डोर सुना
तब से हम रोज जल वहां चढ़ाते हैं


एक आकर्षण खींच रहा क्यों मुझको
क्यों विवाहेतर सब्ज बाग हम बनाते हैं
जब दिखी लौ पतिंगा सी बेबसी पाया
लिख कविता पतिंगे सा गति पाते हैं


फिर सुबह होते ही वह उभर आते हैं
कभी गंभीर दिखें, कभी मुस्कराते हैं
बेबसी दिल की जो समझे वही जाने
जिंदगी युग्म है और भावों के फ़साने हैं.

3 टिप्‍पणियां:

  1. बस भाई देखे जाओ सब्ज बाग। कभी तो फल मिलेगा। शुभकामनायें।

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  2. एक पीपल में बांध आई डोर सुना
    तब से हम रोज जल वहां चढ़ाते हैं

    बहुत खूब ....मन के भावों को बहुत अच्छे से लिखा है ...यही ज़िंदगी है ...जो मिलता है उससे कहाँ संतुष्टि होती है ..

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  3. बहुत खूबसूरत बात, मेरी करवा चौथ की प्रस्तुति "समीकरण" भी पढ़ें
    http://rachanaravindra.blogspot.com/2010/11/blog-post.html

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