मैं भी चला था दौर में देखा न गौर से
एक दिन भी चाह न छोड़ा मिली और से
अब भी उन्हीं जैसा दिखे तो धड़के दिल
संकोच गति को बांधे मन चीखे आ मिल
मैं अपनी धुन में वह अपने उसी तौर से
एक दिन भी चाह न छोड़ा मिली और से
यह बात नहीं कि वह समझीं न इशारा
एक बार उनकी राह देख मुझको पुकारा
थम गया, संकोच उठा, घबराया कौर से
एक दिन भी चाह न छोड़ा मिली और से
प्यार भी हिम्मत, साहस, शौर्य के जैसा
कदम ही बढ़ ना सके तो पुरुषार्थ कैसा
आज भी वही पल ठहरा हांफते शोर से
एक दिन भी चाह न छोड़ा मिली और से।
धीरेन्द्र सिंह
31.05.2025
17.44