अति संवेदनशील पुरुष
जब कला के किसी विधा की
करता है रचना
तब प्रमुख होती है नारी
उसके मन-मस्तिष्क में
बनकर सर्जना की ऊर्जा,
संवेदनाओं की तलहटी में
नहीं पहुंच सकता पुरुष
बिना नारी भाव के,
यदि साहस भी करे तो
रचता है उबड़-खाबड़
तर्क और विवेक मिश्रित
ठूंठ भाव,
पुरुष जब करता है
लोक कला का सृजन
मूल में संजोए
नारी भाव
तब निखर उठती है
एक मौलिक रचना
और अपनी पूर्णता पर
हो खुश
रचना हाँथ मिलाती है
अपने सर्जक से,
प्रत्येक रचना होती है
नारी तुल्य गहन, विस्तृत
जीवंत और व्यवहारकुशल
प्रति पल।
धीरेन्द्र सिंह
21.11.2024
23.05
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