बरसात नहीं हो रही थी
बदलियों बेचैन थीं
हवा मद्धम थी
छाता लेकर निकल पड़ा
दैनिक चहलकदमी,
सावन का पहला दिन
बूंदें थीं गिन-गिन,
बदलियों सोच रही थीं
कभी बूंदे, कभी बंद
नहीं किया छाता बंद,
सड़क सूनी जैसे
आगमन राजनीतिक महंत,
शंकर का मंदिर
जोरदार था प्रबंध,
मैंग्रोव की लंबी हरीतिमा
और सागर
लौट पड़ा शिवकृपा ले,
बदलियां फूट पड़ीं
मानो प्रतीक्षा थी मंदिर तक,
सड़क चौड़ी अच्छी हो तो
बूंदें टकराकर सितारा बन जाती हैं,
दूर तक लगा सड़क पर
उतर आए हैं तारे,
सागर की हवा छाते को
चाह रही थीं करना उल्टा,
एक जगह लगा
उड़ा ले जाना चाहे हवा मुझे,
कमर तक भींग चुका था
बौछारें उन्मत्त थीं,
छाता और गिरती बूंदें
कर रही थीं निर्मित संगीत,
हवा का नर्तन था,
सावन का पहला सोमवार
सुमधुर कीर्तन था,
हवा ने बूंदों को शक्ति दी
लगा गए पूरा भींग,
मोबाइल को छाते के
ऊपरी बटन तक पहुंचाते बचाते,
कोई ना था आते-जाते,
कभी कोई वाहन गुजर जाता,
गुजर रही थीं निरंतर पर
सड़क पर पानी की जलधाराएं
कहीं साफ तो मटमैली,
छाते को नीचे कर
चिपका लिया सर से,
पहली बार अनुभव हुआ
बूंदों का मसाज,
नन्हीं-नन्हीं अंगुलियां असंख्य
कर रही थीं जागृत
अंतर्चेतना।
धीरेन्द्र सिंह
22.07.2024
08.39
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