मन की कुहुक निगाहों से हो ध्वनित
अभिव्यक्तियों के यूं नज़र हो गईं
देखा भी न देखा आंखों की नमी
जिंदगी अघोषित एक ग़दर हो गयी
कुहुक है नयन का अनसुना सा ताल
ध्वनि हर डगर यूं बसर कर गई
पत्ता-पत्ता लगा झूमने पा नई ताल
डालियों पर नज़र जो असर कर गयी
बिन बोले बिन जाने लगते अनजाने
अपनेपन की ऐसी ध्वजा फहर गई
यूं चलते कदम लगने लगे हों नज़म
गंगा कदमों को छू जिंदगी तर गयी
कुहुक निगाह है अथाह ले गहनतम चाह
छाहँ वह राहगीरों की दर हो गई
सब पुजारी ले पाठ उमड़ने लगे
नयनों की बांसुरी जो अधर हो गयी।
धीरेन्द्र सिंह
13.09.2023
12.2
सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएं