बुधवार, 26 अप्रैल 2023

डाली सी तुम

 डाली सी तुम 


लचकती डालियों में पुष्प बहार है

कब कही डाली बहुत ही भार है 


प्रकृति सौंदर्य का एक प्रतिमान है

सुगंध, रंग का एक अभिमान है

डालियाँ झोंका हवा शुमार है

कब कही डाली बहुत ही भार है


छोड़ जाती हैं लदी सारी पत्तियां

पुष्प झर जाते समेटे आसक्तियाँ 

लचक डाली भी लगे खुमार है 

कब कही डाली बहुत ही भार है 


सावन में सज जाते कई झूले

बूंदें भी लटकती तन छू ले 

भीगी डाली में हौसले बेशुमार है 

कब कही डाली बहुत ही भार है 


डाली सी तुम जैसी सबका अधिकरण 

संभालो भी तो कैसे यह पर्यावरण 

कहीं सूखा कहीं कटारी वार है 

कब कही डाली बहुत ही भार है। 


धीरेंद्र सिंह 

26.04.2023

13॰17

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें