गुरुवार, 24 मार्च 2011

जीवन संघर्ष

विगत प्रखर था या श्यामल था
इस पहर सोच कर क्या करना
मौसम भी है, ज़ज्बात भी है,
 

बहे भावों का निर्झर सा झरना

पल-छिन में होते हैं परिवर्तन
फिर क्या सुनना और क्या कहना
ठिठके क्षण को क्यों व्यर्थ करें
हो मुक्त समीर सा बहते रहना

एक संग बना जीवन प्रसंग है
तब जीवन से क्या है हरना
उड़ने की यह अभिलाषा प्रबल
विहंग सा उमंग से क्या डरना

रहे कुछ ना अटल है बस छल
कलछल से क्यों यौवन भरना
है एक प्रवाह के पार पहुंचना
मांझी की सोच से क्या करना.




भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

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