रविवार, 19 दिसंबर 2010

मन चिहुंका

शब्दों को होठों से भींचकर
भावना की सीपी को मींचकर
कल्पनाएँ व्यथा की मीत हुईं
बात-बेबात नाराज़गी की रीत हुई

धड़कनों से धड़कनों को खींचकर
चितवन से उपवन को सींचकर
गीत की अठखेलियॉ मन-मीत हुईं
लहरों से लहरों की जीत हुई

आहट से मन को मीत कर
बासंती सरगम की प्रतीत कर
बिरहन राधा सी पीर हुई
चाहत यमुना की तीर हुई


अकुलाहट को पार्श्व में खींचकर
राहत को आहत से जीतकर
मन तरंग रसमयी झंकार हुई
मन चिहुंका फिर वही टंकार हुई.
 

भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
 शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

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