सोमवार, 15 नवंबर 2010

मंज़िल

मुझको मिली है मंज़िल, खुशियॉ मनाऊँगा
लम्हों को रोक लूँगा, और गीत गाऊँगा,
ऐसी भी चाहते हैं जो, मिलती नहीं दोबारा
चंदन की चॉदनी में, चंदा सजाऊँगा

धरती की चूनर में, आसमां चाहे लिपटना
तारों से लिपटकर के, सूरज को बुलाऊँगा
समंदर में सजाकर के, नयनों की दीपशिखा
सपनों की बातियों में, नई ज्योत जगाऊँगा

आख़िर में ज़िंदगी को, पहुँचना है उस पार
अंजुरी में भर विश्वास, इतिहास रचाऊँगा,
वक्त के काफिले से निकाल लूँगा, तुम्हें, मैं
वज़ीफा ख़ुद को देकर,  सबको सुनाऊंगा.

धीरेन्द्र सिंह

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