मन के भंवर में
तरंगों की असीमित लहरें
कामनाओं के अनेक वलय
लगे जैसे
कृष्ण कर रहे हैं संचालित
प्यार और युद्ध का
एक अनजाना अंधड़,
तिनके सा उड़ता मन
इच्छाओं का इत्र लपेटे
चाहता समय ले पकड़,
लोगों के बीच बैठे हुए
उड़ जाता है व्यक्ति
जैसे लपक कर लेगा पकड़
मंडराते अपने स्वप्नों को
किसी छत के ऊपर,
कितना सहज होता है
छोड़ देना साथ करीबियों का
पहन लेने के लिए उपलब्धि,
उड़ रहे हैं स्वप्न
उड़ रहे हैं व्यक्ति
अपने घर के मांजे से जुड़े,
ऊपर और ऊपर की उड़ान
कई मांजे मिलते जैसे तीर कमान
एक-दूसरे को काटने को आमादा,
किंकर्तव्यमूढ़ देखता है व्यक्ति
कभी स्वप्न कभी घर
और उदित करता है विवेक
एक कृष्ण
रच जाती है निज गीता।
धीरेन्द्र सिंह
01.12.2024
22.25
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