ना समझ आने का दुख तो बहुत है
जब वह अपनी कुंठाएं बताए, क्या करूँ
ऑनलाइन समूह में यौन उन्माद मिलता
प्यार विकृत घिनौना चिढ़ाए, क्या करूँ
चंद हिंदी समूह ही साहित्य चांदनी भरे
अधिकांश समूह देह उन्मादी, क्या करूं
अनेक समूह ऐसे छोड़ता रहा हूँ मैं
महामारी सा लगें उभरने तो, क्या करूँ
कैसे लूं आंख मूंद इस महामारी से
नारी सौंदर्य हैं यह बिगाड़ते, क्या करूँ
ऐसे समूह प्यार को कुरूप घृणित बनाएं
प्यार देह तक हैं उलझाएं, क्या करूं
क्या करूं, क्या करूँ का जप छोड़ना पड़े
यौन मानसिक रुग्णता की, दवा करूं
प्रणय की वादियों में देह ही ना मिले
सुगंध अनुभूतियां खिलती रहें, छुवा करूं।
धीरेन्द्र सिंह
24.09.2024
09.52
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