शाम हसरतों की कर रही शुमारी
और गहरी हो रही फिर वही खुमारी
एक अकेले लिए चाहतों के मेले
कैसे बना देता है वक़्त खुद का मदारी
प्रणय का प्रयोजन हो शाम को मुखर
ऐसे लगे जैसे अटकी कोई है देनदारी
सम्प्रेषण हो बाधित कैसे भाव वहां पहुंचे
काव्य में समेटें अभिव्यक्तियाँ यही समझदारी।
धीरेन्द्र सिंह
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