सत्यस्वरूपा दर्पण मुझे क्या दिखलाएगा
नयन बसी छवि मेरी वही तो जतलाएगा
सृष्टि में बसे हैं भांति रूप लिए जीव
दृष्टि में मेरे वही प्रीति स्वरूपा सजीव
प्रतिबिंबित अन्य को तू ना कर पाएगा
नयन बसी छवि मेरी वही तो जतलाएगा
मानता हूँ भाव सभी निरखि करें अर्पण
जीवन अनिवार्यता तू भी है एक दर्पण
क्या इस आवश्यकता पर तू इतराएगा
नयन बसी छवि मेरी वही तो जतलाएगा
हो विषाद मन में रेंगता लगे है मन
दर्पण में देखूं तो तितली रंग गहन
अगन इस मृदुल को तू कैसे छकाएगा
नयन बसी छवि मेरी वही तो जतलाएगा।
धीरेन्द्र सिंह
29.09.20२5
09.10