शुक्रवार, 29 नवंबर 2024

कौन लिख रहा

 कौन लिख रहा वर्तमान जो कहे

प्यार की गोद में लेखक हैं पड़े


व्यथा प्यार की, पीड़ा बिछोह का

कथा यार की, बीड़ा न मोह का

प्यार विशाल बतलाते मानव ढहे

प्यार की गोद में लेखक हैं पड़े


या तो भूत भाव या हैं कल्पनाएं

सपूत कीर्ति छांव कोई न बतलाए

झुरमुट तले खरगोश बंद दृष्टि पड़े

प्यार की गोद में लेखक हैं पड़े


शौर्य नहीं शक्ति नहीं न तो जाबांजी

चॉकलेटी चेहरा लिए बस हो इश्कबाजी

पांव अथक चल रहे छोड़कर धड़े

प्यार की गोद में लेखक हैं पड़े।


धीरेन्द्र सिंह

29.11.2024

16.51


बुधवार, 27 नवंबर 2024

कौन बड़ा

 दिल कूद सामने बेचैन खड़ा हो गया

पूछ बैठा प्यार से कौन बड़ा हो गया


विश्व में जनित नव प्यार परिभाषा

सत्य में घटित भाव श्रृंगार तमाशा

संवेदना का तार टूटा धड़ा हो गया

पूछ बैठा प्यार से कौन बड़ा हो गया


व्योम और धरा का है पारस्परिक यार

स्थापित को झुठलाने के हैं कई प्रकार

प्यार बौना हो रहा स्वार्थ मढ़ा ओ गया

पूछ बैठा प्यार से कौन बड़ा हो गया


दिल दुखी पूछ बैठा यह क्या प्रकार है

अवसरवादी प्यार हुआ क्या मनोविकार है

विकल्प बेशुमार ले मन कड़ा हो गया

पूछ बैठा प्यार से कौन बड़ा हो गया।


धीरेन्द्र सिंह

28.11.2024

05.53


मंगलवार, 26 नवंबर 2024

बोरसी

 कुछ अलग - भाषा, संस्कृति, अभिव्यक्ति :-


काठ छुईं जांत छुई जड़वत कड़ाका

बोरसी से ठेहुन लगल मिलल पड़ाका


रजाई से देह निकलल भयल तमाशा

अंगुरी-कान चुए लागल पानी क बताशा

काँपत देंह जापत जीभ नाक सुन सड़ाका

बोरसी से ठेहुन लगल मिलल पड़ाका


गोबर-गोइठा सानी पानी जाड़ा क कहानी

चूल्हा-चौका चाय-पानी इहे गांव जवानी

लकड़ी, गोईंठा, बोरसी आग फूटे देह धड़ाका

बोरसी से ठेहुन लगल मिलल पड़ाका।


धीरेन्द्र सिंह

26.11.2024

17.20

सोमवार, 25 नवंबर 2024

ओस

 ओस ठहरी हुई है 

पंखुड़ी पर

यह उसका है भाग्य,

वह दूब, धरा समाई

अनजाने में

जीवन भी है कितना साध्य,


पंखुड़ी, दूब, धरा आदि

कोमल शीतलता पगुराए

पवन झकोरा उन्मादी

ओस चुहल की उत्पाती

इधर चले

कभी उधर चले

जैसे तुम्हारे नयन

पलक ओस समाए,

पवन सरीखा हम बौराए,


गिरती ओस में

सिमट आती है तुम्हारी सोच

और मन करता है प्रयास

पंखुड़ी, दूब, धरा आदि

बन जाना

पर होता कब है

जीवन को जी पाना मनमाना,


हवाएं सर्द चल रही हैं

ओस की शीतलता चुराए

राह पर कुहरा है

धीमा गतिशील जीवन है

जैसे

लचक रही हो टहनी

झूल रही हो ओस

और तुम संग लचकती

सिहरन भरी यह सोच।


धीरेन्द्र सिंह

26.11.2024

05.05




रविवार, 24 नवंबर 2024

आत्मा की भूख

 आत्मा की भूख जब भी हुंकार भरे

क्यों न जीवन फिर किसी से प्यार करे


प्यार परिणय में मिले क्या है जरूरी

सामाजिकता संस्कृति की होती धूरी

वलय की परिक्रमाएं वही धार रहे

क्यों न जीवन फिर किसी से प्यार करे


यूं किसी से प्यार हो जाना असंभव

तार मन के जुड़ भरें निखार रच भव

एक धुआं दिल उठे लौ की पुकार करे

क्यों न जीवन फिर किसी से प्यार करे


प्रौद्योगिकी है देती प्रायः नव धुकधुकी

खींच लेता भय मन चाह लगाए डुबकी

अपना मन जब असीमित दुलार भरे

क्यों न जीवन फिर किसी से प्यार करे।


धीरेन्द्र सिंह

25.11.2024

08.46