शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

बादलों के अश्रु

 बादलों के अश्रु से

भींगी जो बालकनी

वह फूलों को देख कर

मुस्कराते रहे


मिलन की वेदना गरजी

बिजलियाँ झलक को लपकीं

देह की सिहरनों में वह

कसमसाते रहे


कोई आ जाए ऐसे ही

समझ सर्वस्व ही अपना

प्रशंसक बीच सपना बांट

खिलखिलाते रहे


हृदय की वेदिका में

निरंतर चाह का हवन

भाव घंटियों को सुन वह

बुदबुदाते रहे


यह बादल अब भी भटके

बालकनी में बरसते

खिड़कियां बंद कर वह

झिलमिलाते रहे।


धीरेन्द्र सिंह

साहित्यिक देवदासियां

 आजकल 

महफिलें नहीं जमती

गजरे की खुश्बू भरी गलियां

पान के सुगंधित मसालों की

सजी, गुनगुनाती दुकानें

और सजे-संवरे

इश्क़ के शिकारियों की

इत्र भरे जिस्म

सीढ़ियों पर नहीं लपकते,

अब नया चलन है

फेसबुक, व्हाट्सएप्प आदि

महफिलों के नए ठिकाने

इनकी भी एक नस्ल है

ढूंढना पड़ेगा

और मिल जाएंगी

मदमाती, बलखाती

लिए अदाएं

प्यासी और प्यास बुझानेवाली

पढ़ी-लिखी, धूर्त, मक्कार

आधुनिक देवदासियां,

कुछ साहित्यिक पुस्तकें पढ़

कुछ नकल कर लेती मढ़

और रिझाती हैं, बुलाती हैं,

कुछ भी टिप्पणी कीजिए

बुरा नहीं मानेंगी

बल्कि फोन कर

अपने जाल में फासेंगी,

कर लेंगी भरपूर उपयोग

फिर कर देंगी त्याग

बोलेंगी मीठा हरदम

आशय होगा"चल भाग"

आज ऐसी ही 

"साहित्यिक" देवदासियों का भी

बोलबाला है,

ऑनलाइन इश्क़ स्वार्थ सिद्धि

और बड़ा घोटाला है,

प्रबुद्ध, चेतनापूर्ण, गंभीर

महिला रचनाकार

कर रहीं गंभीर साहित्य सर्जन

कुछ "देवदासियां" अपनी महफ़िल सजा

कर रही साहित्य उपलब्धि सर्जन,

हे देवदासियों

पढ़ आग लगे जल जाइए

हिंदी साहित्य को बचाइए।


धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 21 जुलाई 2021

सर्वस्व

 तन्मय तृषित तत्व अभिलाषी

रोम-रोम पैठ करे तलाशी

सर्वस्व का सब जान लेना

सतत, निरंतर मन है प्रयासी


आंगन में अंकों की तालिका

घर में कर्मठता के प्रवासी

पट घर के सब चिपके अकुलाए

आंगन आशाओं में हताशी


ऊर्ध्व प्रगति की अनंत आकांक्षाएं

आत्मा ही आत्मा विश्वासी

सिर्फ बात यदि बातें सिमटाए

पल प्रतिपल लगे चपल मधुमासी।


धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

रहे छुपाए

 बंद करते जा रहे हैं

हर द्वार, रोशनदान

प्रत्यंचाएं खींची हुई

शर्मिंदा हृदय वितान


रहे छुपाए बच न पाए

कोई कैसे पाया संज्ञान

बंद घरों में पसरे धूल

भावनाएं छू ले मचान


राजनीति हो या जगनीति

भाए न किसी को बिहान

अंधकार, खामोशी छलके

नैया, चप्पू, लंगर, श्रीमान।


धीरेन्द्र सिंह


आत्मिक द्वंद्व

 कंकड़ लगातार

जल वलय 

डुबक ध्वनि

खुद से युद्ध

मन चितेरा।


धीरेन्द्र सिंह


सोमवार, 5 जुलाई 2021

शंकर तांडव

 गीत लिखने को गगन रहे आतुर

सज-धज कर धरा भी इठलाए

प्रकृति प्रणय है अति प्रांजल

प्रीत गीत सब रीत अकुलाए


उग सी रही मन बस बन दूर्वा

नैवेद्य वहीं बन मूक चढ़ाएं

कोमल दूर्वा झूमे पुष्परहित 

मन समझे उन्हें छू गई ऋचाएं


ग्रहण लग गया धरा को अब तो

शंकर तांडव, गगन छुप जाए

धरती लिपटी शंकर के डमरू

गगन अगन, जल मुस्काए


यही प्रकृति है प्रणय यही है

शंकर क्यों तांडव मचाएं

गीत, गगन-धरा नित की बातें

धरती चुपके से पढ़ जाए।


धीरेन्द्र सिंह

समय की वेदना

 समय की वेदना का यह अंजन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है


नियति की गोद में निर्णय ही सहारा

उड़े मन को मिले फिर वही किनारा

हृदय के दर्द का अब यही रंजन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है


हासिल कर लिए जो छूट कैसे जाए

जिंदगी ठहर गई जहां और क्यों धाए

उठो न भोर स्वागत का ले मंजन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है


सकल सुरभित वलय के गिर्द है बंधन

नयन मुग्धित मगन आभूषित करे चंदन

यह सम्प्रेषण लिए गहि-गहि क्रंदन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है।


धीरेन्द्र सिंह

चूम जाओ

 ओ मन झूम जाओ

आकर चूम जाओ


बहुत नादान है यह मन

दहन धड़कन है सघन

सावनी व्योम लाओ

आकर चूम जाओ


परिधि जीवन का है बंधन

देहरी पर सजा चंदन

मर्यादा निभाओ

आकर चूम जाओ


शमित होती हर दहन

मन को चूमता जब मन

वादे ना भुलाओ

आकर चूम जाओ।


धीरेन्द्र सिंह


ओ सगुनी

 मेरी सांस चले एहसास रुके

कोई बात है या फिर कहासुनी

तुम रूठ गई हो क्यों तो कहो

सर्वस्व मेरी कहो ओ सगुनी


निस्पंद है मन लूटा मेरा धन

दिल कहता है मेरी अर्धांगिनी

एक रिश्ता बनाया प्रकृति जिसे

खामोश हो क्यों प्रिए अनमनी


पग चलते हैं तुम ओर सदा

राहों ने खामोशी क्यों है बुनी

पत्ते भी हैं मुरझाए उदास से

बगिया की मालन लगे अनसुनी।


धीरेन्द्र सिंह


हम ही तुम थे

 किसी को छोड़ देना भी 

सहज आसान इतना कि

जैसे दीप जल में प्रवाहित 

कामनाओं के,

लहरें जिंदगी की खींच ले जाती हैं 

मन दीपक

छुवन की लौ है ढहती 

जल गर्जनाओं के,

हम ही तुम थे 

कि बाती दीप सजाए

तपिश बाती में धुआं भ्रमित 

अर्चनाओं के।


धीरेन्द्र सिंह

रविवार, 4 जुलाई 2021

बाधित सम्प्रेषण

 शाम हसरतों की कर रही शुमारी

और गहरी हो रही फिर वही खुमारी

एक अकेले लिए चाहतों के मेले

कैसे बना देता है वक़्त खुद का मदारी


प्रणय का प्रयोजन हो शाम को मुखर

ऐसे लगे जैसे अटकी कोई है देनदारी

सम्प्रेषण हो बाधित कैसे भाव वहां पहुंचे

काव्य में समेटें अभिव्यक्तियाँ यही समझदारी।


धीरेन्द्र सिंह


शनिवार, 3 जुलाई 2021

कब बोलोगी

 चाहत की धीमी आंच पर

इंसान भी सिजता है,

तथ्य है सत्य है

आजीवन न डिगता है,

चाहत कब झुलसाती है

नैपथ्य बस सिंकता है,

कब बोलोगी इसी का इन्तजार

मन रोज तुमको ही लिखता है।


धीरेन्द्र सिंह

शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

खंडित अभिव्यक्तियाँ

 उन्मुक्त अभिव्यक्तियाँ

न तो समाज में

न साहित्य में,

नियंत्रण का दायरा

हर परिवेश में,

सभ्य और सुसंस्कृत

दिखने की चाह

घोंटती उन्मुक्तता

छवि आवेश में,

खंडित अभिव्यक्तियाँ

उन्मुक्तता के दरमियां

भावनाओं को कर रहीं

कुंठित,

मानव तन-मन अब

अंग-खंड आबंटित।


धीरेन्द्र सिंह


रिक्त अंजुल

 मर्यादित जीवन 

बदलता है केंचुल

एक चमकीली आभा खातिर,

इंसानियत का प्यार

रिक्त अंजुल

उलीचता रहता है अख्तियार

बनकर शातिर,

दौड़ने का भ्रम लिए

यह रेंगती जिंदगी।


धीरेन्द्र सिंह


अजगर शाम

 शाम अजगर की तरह

समेट रही परिवेश

निगल गई

कई हसरतें,

आवारगी बेखबर

रचाए चाह की

नई कसरतें।


धीरेन्द्र सिंह

02.07.2021

शाम 06.17

लखनऊ

शाम का छल

 शाम अपनी जुल्फों में

लिए पुष्प सुगंध

हवा को करती शीतल

क्या दुलारती है सबको,

शाम करती है छल

 निस दिन अथक

तोड़ती है भावनात्मक बंधन

दे अन्य के भावों का चंदन,

त्याग देती है

पुराने हो चुके को

नए से कर निबंधन,

अब शाम

नहीं रही पहले जैसी

अक्सर बोले

वादे और जिंदगी की

ऐसी-तैसी,

शाम अकुलाई है

नए को पाई

पुराने को ठुकराई है,

नहीं बीतती अब शामें

बहकी-बहकी बातों में

प्रणय अचंभित लड़खड़ाए

स्वार्थ सिद्ध के नातों में।


धीरेन्द्र सिंह

02.07.2021

शाम 06.40

लखनोए।


गुरुवार, 1 जुलाई 2021

तुम

 तुम नयनों का प्रच्छा लन हो

तुम अधरों का संचालन हो

हृदय तरंगित रहे उमंगित

ऐसे सुरभित गति चालन हो


संवाद तुम्हीं उन्माद तुम्हीं

मनोभावों की प्रतिपालन हो

जिज्ञासा तुम्हीं प्रत्याशा तुम्हीं

रचनाओं की नित पालन हो


कैसे कह देती वह चाह नहीं

हर आह की तुम ही लालन हो 

हर रंग तुम्हीं कोमल ढंग तुम्हीं

नव रतिबंध लिए मेरी मालन हो।


धीरेन्द्र सिंह