ओस ठहरी हुई है
पंखुड़ी पर
यह उसका है भाग्य,
वह दूब, धरा समाई
अनजाने में
जीवन भी है कितना साध्य,
पंखुड़ी, दूब, धरा आदि
कोमल शीतलता पगुराए
पवन झकोरा उन्मादी
ओस चुहल की उत्पाती
इधर चले
कभी उधर चले
जैसे तुम्हारे नयन
पलक ओस समाए,
पवन सरीखा हम बौराए,
गिरती ओस में
सिमट आती है तुम्हारी सोच
और मन करता है प्रयास
पंखुड़ी, दूब, धरा आदि
बन जाना
पर होता कब है
जीवन को जी पाना मनमाना,
हवाएं सर्द चल रही हैं
ओस की शीतलता चुराए
राह पर कुहरा है
धीमा गतिशील जीवन है
जैसे
लचक रही हो टहनी
झूल रही हो ओस
और तुम संग लचकती
सिहरन भरी यह सोच।
धीरेन्द्र सिंह
26.11.2024
05.05