गुरुवार, 12 सितंबर 2019

सुघड़ लगती हो

सुघड़ लगती हो
साड़ी जब तुमसे
लिपट जाती है
चूड़ियां जब रह-रह
खनखनाती है
पावों के महावर
जब गुनगुनाते हैं
हम और बहुत और
 पास हो जाते हैं,

माथे की बिंदिया
सूरज की ललक
नयनों में कजरा की
श्यामल धमक
अधरों पर थिरके
अनकही बातें
कानों में बाली
झूम-झूम नाचे
भाव उन्मादी थरथराते हैं
न जाने क्यों घबड़ाते हैं

बाह्य अभिव्यक्ति
कितनी आसक्ति
व्यक्ति की जीवंतता
व्यक्ति ही व्यक्ति
आंतरिक आकर्षण
तर्करहित युक्ति
इससे प्रबल
कहां कोई शक्ति
जीवन सुरभित मिल बनाते हैं
ज़िन्दगी की धुंध को बहलाते हैं।

धीरेन्द्र सिंह
नारी सिर्फ श्रृंगार
मनभावन अभिसार
या कुछ और भी
करता है निर्धारित
देखने का तौर भी,

देह की दालान
या असीम आसमान
वासना उन्माद की
यह एक संस्कार
या तासीर आधुनिक दौर की,

यही तो समझाई हो
कुछ ना छुपाई हो
नारीत्व दमदार की
प्रीत संगिनी गुरु वंदनी
जीवन के हर टंकार की,

प्यार भी और शक्ति भी
उन्नयन की आसक्ति दी
कर्मयुद्ध की संगिनी भी
अस्त्र भी हो शस्त्र भी बनो
कवच हर एक प्रहार की।

धीरेन्द्र सिंह


बुधवार, 11 सितंबर 2019

मन की तूलिका

मन की तूलिका से
भावों में रंग
हो जाए विहंग
तुमको सजाकर
दुनिया को हटाकर,
कब स्वीकारा है तुमने
दुनिया के खपच्चे की बाड़ को
अपने अंदाज से
अपने जज्बात से
दुनिया की मनगढ़ंत आड़ से,

सौम्य, शांत मैदानी नदी सी
तुम गुजरो कभी पहाड़ों से
तो कभी मैदानी भाग से
हर समय दीप्त
तुम्हारी आग से,
यह आग
जाड़े की रात की आग
ऊपर से शांत
भीतर प्रज्ज्वलित भाग
एक संतुलन को बनाए हुए
खुद को अलमस्त जिलाए हुए,

तुम्हारी यह जीवंतता
कैसे देती है पीस
दुनिया के अवसादों को
अनमनी, अस्वीकार्य बातों को
इतनी सहजता से
कितनी सुगमता से
कि लगे
तुम समाधिस्त साधिका हो
खुद में खुद की आराधिका हो,

घर-परिवार के स्वाभाविक झंझावात
विद्वेष या नाराजगी
क्रोधित होते हुए भी
नहीं देखा इतने वर्षों में,
कहां संभव है
आज के युग में
यह संतुलन, यह सहजता
जग इसे पढ़कर भी
कपोल कल्पना है समझता
पर
जगत की नायाब अनुभूति
मेरे अधिकार में है
कथ्य की सार्थकता
उन्मुक्त जयकार में है,

सुनो
फिर एक मीठी झिड़की लगाओगी
दुनियादारी मुझे सिखाओगी
और कहोगी
निजी बातों को ही
क्यों लिखता हूँ
प्रिए
निरंतर तुम में
जो बहता हूँ।

धीरेन्द्र सिंह

अतुकांत

अधूरी रचनाओं की पंगत में
कहीं खोई सी
एक तरफ लुढ़की
हताश सा विश्वास
भावों को गढ़ रही हो,
अनगढ़ क्या होता है
यदि घट पर हो लहरें
असंभव क्या होता है
यदि लहरों पर हो तिनके
तुम लहर ही तो हो
मेरी सोच का, रचनाओं का
पर न जाने क्यों लुढ़की हो,

लेखन की तुकांत विधा मेरी
कर दोगी विदा ओ चित मेरी
पर हां मानूंगा कहना तुम्हारा
एक चुनौती की तरह
जब तुम कहोगी
कविता वही होती हो
जिसमें रसधार हो
तुकांत हो या अतुकांत
अलहदा खुमार हो,

मेरे लिख देने की क्षमता
संशय के घेरे में
न जाने क्यों
तुम्हारी जुल्फों से
पहचाने शैम्पू की खुश्बू न आए
न लटें बौराएं
न ही वह खिलखिलाहट दिखे
अतुकांत लिखने का संकेत
बोल ही देती हो आजकल,

जब से तुम मिली
कविता कहां लिखा
लिखता भी कैसे
जिए जा रहा था कविता
बस शाब्दिक छींटे द्वारा
संभालने का प्रयास था शब्द सामर्थ्य
कविता जी लेना भी कौशल
यह न तो काव्य विधा
न समीक्षक का विचार बिंदु
फिर भी
लिख ही दिया अतुकांत
क्योंकि न जाने कब से
तुम लुढ़की हो
अधूरी रचनाओं की पंगत में।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 28 मार्च 2019

ज़िन्दगी

बूंदें जो तारों पर लटक रही
तृषा लिए सघनता भटक रही
अभिलाषाएं समय की डोर टंगी
आधुनिकता ऐसे ही लचक रही

चुनौतियों की उष्माएं गहन तीव्र
वाष्प बन बूंदें शांत चटक रही
बोल बनावटी अनगढ़ अभिनय
कुशल प्रयास गरल गटक रही

जीवन में रह रह के सावनी फुहार
बूंदें तारों पर ढह चमक रही
कभी वायु कभी धूप दैनिक द्वंद
बूंदों को अनवरत झटक रही

अब कहां यथार्थ व्यक्तित्व कहां
क्षणिक ज़िन्दगी यूं धमक रही
बूंद जैसी जीवनी की क्रियाएं
कोशिशों में ज़िन्दगी खनक रही।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 27 मार्च 2019

तकनीकी संबंध

मधुर मृदुल करतल
ऐसी करती हो हलचल
स्मित रंगोली मुख वंदन
करती आह्लादित प्रांजल

सम्मुख अभ्यर्थना कहां
मन नयन पलक चंचल
फेसबुक, वॉट्सएप, मैसेंजर
दृग यही लगे नव काजल

मन को मन छुए बरबस
भावों के बहुरंग बादल
अपनी मस्ती में जाए खिला
मन सांखल बन कभी पागल

ऑनलाइन बाट तके अब चाहत
नेटवर्क की शंका खलबल
वीडियो कॉल सच ताल लगे
अब प्रत्यक्ष मिलन हृदयातल।

धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 26 मार्च 2019

दुनिया है तो दुनियादारी है
दाल, चावल, गेहूं, तरकारी है
निजी है तो बेहतर ही होगा
मिल जाता खोट गर सरकारी है

उत्तरोत्तर कर रहा विकास चतुर्दिक
ऐसी प्रगति भी लगे दुश्वारी है
बाजारवाद में अपनी बिक्री की चिंता
रोको, अवरोध, कहां विरोध कटारी है

सत्य कहां निर्मित होता प्रमाण मांग
गर्भावस्था की क्या प्रामाणिक जानकारी है
भ्रूण की किसने देखा संख्या बतलाओ
सत्य हमेशा नंगा बोलो क्या लाचारी है।

धीरेन्द्र सिंह