गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

शिल्पकार

बैठ कर एक शिल्पकार
एक मूर्ति में रहे रमा
ना आकर्षण ना हंगामा
बस रचनाधर्मिता का शमा

न कोई ओहदा न कोई पद
न सुविधाओं का समां
मिट्टी में सनी कल्पनाएं
कलाकृति बन मेहरबां

यह भी तो है व्यक्तित्व
सहज, सरल न बदगुमां
रचते समाज, जीवन सहज
खुशियों के अबोले रहनुमा

ऐसे ही कई व्यक्ति व्यस्त
अलमस्त सृजन उर्ध्वनुमा
जीवन के मंथन में मगन
चूर-चुर पिघल रह खुशनुमा।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

अनुभूति

मन जब अपनी गहराई में
उतर जाए
एक ख़ामोश सन्नाटा मिले
कुछ कटा जाए
और
एकाकीपन की उठी आंधी
आवाज लगाए
टप, टप, टप
ध्वनित होती जाए;

प्रायः ऐसा हो बात नहीं
पर होता जाए
जब भी मन अकुलाए
खुद में खोता जाए
और
तन तिनके सा उड़ता - उड़ता
उसी नगरिया धाए
छप, छप, छप
कोई चलता जाए।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 4 अप्रैल 2018

चाटुकारिता

वहम अक्सर रहे खुशफहम
यथार्थ का करता दमन
अपने-अपने सबके झरोखे
नित करता उन्मुक्त गमन

गहन मंथन एक दहन
सहन कायरता का आचमन
उच्चता पुकार की लपकन
चाटुकारिता व्यक्तित्व जेहन

बौद्धिकता पद से जोड़कर
नव संभावनाएं बने सघन
भारतीय विदेश जगमगाएँ
भारत में साष्टांग चलन

चंद देदीप्य भारतीय भविष्य
अधिकांशतः स्वान्तः में उफन
चंद की उष्माएँ खोलाए
क्रमशः जी हुजूरी दफन।

धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

त्वरित दृग

त्वरित दृग हास्य विस्मित करे
मृगसमान मन विस्तारित पंख लिए
चंचला चपला चतुर्दिक दृश्यावली
अगवानी करें तुम्हारी हम शंख लिए

शुभता शुभ्र संग प्रभाव छांव
ठांव निखर जाए एक उमंग लिए
परिष्कृत निरंतर अबाधित डगर
न दूजा दिख सका यह ढंग लिए

मधुर हुंकार मध्यम टंकार तुम
झंकार की पुकार बहुरंग लिए
अथक संग पुलकित चल चलें
निखार से बंधे उत्तम प्रबंध लिए

गहनतम कि गगन चांद सा
प्रतिबिंबित तारे हुडदंग लिए
मेघ से घटाएं शबनमी सी
निरखि उड़े मन प्रति तरंग लिए।

धीरेन्द्र सिंह

रविवार, 1 अप्रैल 2018

नया दौर

मन संवेदनाओं का ताल है
आपका ही तो यह कमाल है
लौकिक जगत की अलौकिकता
दृश्यपटल संकुचित मलाल है

कभी टीवी, दैनिक पत्र, मोनाईल
स्त्रोत यही प्रदाता हालचाल है
स्वविश्लेषण, अवलोकन लुप्तता
सत्यता निष्ठुरता से बेहाल है

कुछ न बोलें कुछ न लिखें लोग
मौन रहना प्रगति का ढाल है
व्यक्तिगत प्रगति का मकड़जाल
अब कहाँ नवगीत नव ताल है

इस अव्यवस्था की लंबी अवस्था
बाहुबल प्रचंड और दिव्य भाल है
सत्यता डिगती नहीं न झुकी कहीं
संक्रमण का दौर है परिवर्तनीय काल है।

धीरेन्द्र सिंह

शनिवार, 31 मार्च 2018

एकात्म

मुक्त कितना हो सका है मन
भाव कितने रच रहे गहन
आत्मा उन्मुक्त एक विहंग
ज़िन्दगी क्रमशः बने दहन

नित नए भ्रम पुकारे उपलब्धियां
सोच पुलकित और मन मगन
जीव की जीवंतता अनबूझी
सूक्ष्म मन अब लगे पैरहन

देख भौतिक आकर्षण विचलन
फिसलन खींच रही पल हरदम
अनियंत्रित दौड़ ले बैसाखियां
लक्ष्य का अनुराग स्वार्थी मन

प्रकृति है दर्शा रही उन्नयन राहें
मति भ्रमित तिरस्कृत उपवन
अब कली, भ्रमर, पराग, गंध पुष्प
साध्य नहीं काव्य की लगन

जीव, जीवन, आत्मन, मनन
अंतरात्मा से प्रीत घटा घनन
स्नेह, नेह, ध्येय की स्पष्टता
उन्नयन एकात्मिक हो तपन।

धीरेन्द्र सिंह

तुम

कौंध जाना वैयक्तिक इयत्ता है
यूं तो सांसों से जुड़ी सरगम हो
स्वप्न यथार्थ भावार्थ परमार्थ
कभी प्रत्यक्ष तो कभी भरम हो

अनंत स्पंदनों के सघन मंथन
वंदन भाव जैसे नया धरम हो
खयाल अर्चना संतुष्टि नैवेद्य
जगराता का तासीर खुशफहम हो

विद्युतीय दीप्ति लिए मन व्योम लगे
चाहत में घटाओं सा नम हो
अंतराल में बूंद सी याद टपके
जलतरंग पर थिरकती शबनम हो

निजता के अंतरंग तुम उमंग
सुगंध नवपल्लवन जतन हो
अकस्मात आगमन उल्लसित लगे
तुम हर कदम हर जनम हो।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 29 मार्च 2018

भोर

भोर की पलकें और चेहरे पर जम्हाई
मन में राधा सी लगे रागभरी तन्हाई
कोमल खयाल सिद्धि जीवन की कहे
एक शुभ दिन आतुर व्यक्त को बधाई

सुबह के संवाद अक्सर अनगढ़ बेहिसाब
तैरता मन उड़ता कभी दौड़ता अमराई
और एहसासों का बंधन प्रीत क्रंदन
युक्तियां असफल कई डगर डगर चिकनाई

छुट्टी हो तो बिस्तर ले करवटें पकड़
बेधड़क न सुबह लगे न अरुणाई
अलसाए तन में सघन गूंज होती रहे
तर्क वितर्क छोड़ मति जाए मुस्काई

और कितना सुखद निढाल ले ताल
बवाली भावनाएं नव माहौल है गुंजाई
कोई न छेड़े प्रीत योग की कहें क्रियाएं
नवनिर्माण नवसृजन  निजता की तरुणाई।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 28 मार्च 2018

आधुनिक जीवन

बूंदें जो तारों पर लटक रही
तृषा लिए सघनता भटक रही
अभिलाषाएं समय की डोर टंगी
आधुनिकता ऐसे ही लचक रही

चुनौतियों की उष्माएं गहन तीव्र
वाष्प बन बूंदें शांत चटक रही
बोल बनावटी अनगढ़ अभिनय
कुशल प्रयास गरल गटक रही

जीवन में रह रह के सावनी फुहार
बूंदें तारों पर ढह चमक रही
कभी वायु कभी धूप दैनिक द्वंद
बूंदों को अनवरत झटक रही

अब कहां यथार्थ व्यक्तित्व कहां
क्षणिक ज़िन्दगी यूं धमक रही
बूंद जैसी जीवनी की क्रियाएं
कोशिशों में ज़िन्दगी खनक रही।

धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 27 मार्च 2018

ऑनलाइन प्यार

मधुर मृदुल करतल
ऐसा करती हो हलचल
स्मित रंगोली मुख वंदन
करती आह्लादित प्रांजल

सम्मुख अभ्यर्थना कहां
मन नयन पलक चंचल
फेसबुक, वॉट्सएप, मैसेंजर
दृग यही लगे नव काजल

मन को मन छुए बरबस
भावों के बहुरंग बादल
अपनी मस्ती में जाए खिला
मन सांखल बन कभी पागल

ऑनलाइन बाट तके अब चाहत
नेटवर्क की शंका खलबल
वीडियो कॉल सच ताल लगे
अब प्रत्यक्ष मिलन हृदयातल।

धीरेन्द्र सिंह

शनिवार, 24 मार्च 2018

जीवन मूल्य

पता नहीं जीवन समझाता नहीं
लीक पर चलना भाता नहीं

लोग कहते हैं जीवन गणित है
हर जीवन लचीला नमित है
मैं मनमौजी जीवन ज्ञाता नहीं
लीक पर चलना भाता नहीं

जो सत्य है वहीं जीवन लक्ष्य है
सभी अपूर्ण फिर भी दक्ष हैं
आवरण स्वीकार्यता आता नहीं
लीक पर चलना भाता नहीं

उमड़ रही भीड़ कारवां का तीर
रंक को देखिए शीघ्र बना अमीर
व्यवस्था, जुगाड से बना नाता नहीं
लीक पर चलना भाता नहीं

हो रहा समाज विमुख उसकी मर्ज़ी
भीड़ हिस्सा बन ना भाए खुदगर्जी
राह निर्मित कर नवीन जगराता कहीं
लीक पर चलना भाता नहीं

सबकी अपनी सोच है सिद्धांत है
सत्यता से प्रीत वह न दिग्भ्रांत है
जीवन मूल्य से हटकर अपनाता नहीं
लीक पर चलना भाता नहीं।

धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 20 मार्च 2018

कार्यालय

कारवां के बदलते अंदाज़ हैं
कैसे कहें नेतृत्व जाबांज है

सूख रही बगीचे की क्यारियां
फिर भी टहनियों पर नाज़ है

सिर्फ कागजों की दौड़ चले
फोटो भी छुपाए कई राज हैं

एक-दूजे की प्रशंसा ही बानगी
कार्यालयों में यही रिवाज है

कारवां से अलग चलना नहीं
नयापन अक्सर लगे बांझ है

सांप सीढ़ी का खेल, खेल रहे
बहुत कठिन मौलिक आवाज है।

धीरेन्द्र सिंह

सोमवार, 19 मार्च 2018

बालियां

फूलों से लदी झूमे जो डालियाँ
तुम्हारी बालियां

भौरें की परागमयी लुभावनी पंखुड़ियां
तुम्हारी बालियां

तट की तरंगें बगुला की युक्तियां
तुम्हारी बालियां

भावों का वलय तृष्णा पुकार दरमियाँ
तुम्हारी बालियां

होती होंगी कान्हा-गोपी की गलियां
तुम्हारी बालियां

कपोल का किल्लोल मनभावन चुस्कियां
तुम्हारी बालियां।

धीरेन्द्र सिंह

हिंदी

चलत फिरत चौपाल चहुबन्दी
कहते सबकी जुबान है हिंदी
समरसता युग्म एकता रचाए
रश्मियों की मुग्धजाल है हिंदी

सब जानें बातों की ही हिंदी
भाषाजगत में भी चकबंदी
भाषा कामकाजी विरक्त है
दिग दिगंत जैसे शिव नंदी

कभी लगे भरमाती हिंदी
लिखित प्रयोग न पाती हिंदी
ढोल नगाड़े पर जो थिरके
ऐसी ही हिंदी हदबंदी

सुने प्रयोजनमूलक हिंदी नहीं
हस्ताक्षर को भी न भाए हिंदी
लिखित घोषणाएं हुईं बहुत
फाइल साज बजे पाखंडी।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 7 मार्च 2018

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

शब्दों की गुहार है उत्सवी खुमार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

शहर, महानगर व्यस्त हैं आयोजन में
अर्धशहरी, ग्रामीण मस्त अनजानेपन में
जो शिक्षित उनका ही दिवस रंगदार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

शिक्षा प्राप्त नहीं लगी घर के कामकाज में
नारी अधिकार का ज्ञान नहीं सीमित राज में
चौका, चूल्हा, बर्तन, भांडा जीवन अभिसार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

शिक्षित नारी रचती फुलवारी एक आंदोलन में
फेसबुकिया उन्माद चले नव रचना बोवन में
ऐसे आंदोलन, लेखन का गावों को दरकार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

नारी को नारी सिखलाये लाज,शर्म के आंगन में
नारी का सुखमय जीवन सास, ससुर, पिय छाजन में
बचपन से नारी व्यक्तित्व में परंपराएं लाचार हैं
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

शिक्षा ही ब्रह्मास्त्र है जीवन के इस जनमन में
शिक्षित नारी सुदृढ स्थापित भुवन, चमन में
नारी ही परिजन का प्रतिबद्ध पतवार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है।

धीरेन्द्र सिंह

सोमवार, 5 मार्च 2018

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी को जिंदादिली नहीं
इंसां कहीं तो ज़िन्दगी कहीं
फकत ईमानदारी ही जरूरी
बाकी सब तकल्लुफ वहीं का वहीं

जरिया जज्बात हो जरूरी नहीं
आबाद खुशफहम चाहे रहे कहीं
फकत दिल्लगी पर रहे अख्तियार
बाकी सब जिल्लतें वहीं का वहीं

नुमाइश की तलबगारी भी नहीं
हसरतें भले कुलांचे भरे कहीं
फकत शख्सियत की तीमारदारी
बाकी सब उल्फतें वहीं का वहीं

माशूका हो करीब जरूरी तो नहीं
इश्क़ ज़र्द सूफियाना हो तो कहीं
फकत एहसासों की नर्म चादर रहे
बाकी सब महफिलें वहीं का वहीं।

धीरेन्द्र सिंह

नई पीढ़ी

अदब दब अब गुमाँ हो गई
यही सोच नया पीढी भी नई

संस्कार के आसार अब कहां
विद्या कभी नौकरी यहां-वहां
परिवेश आत्मचिंतन धुंधला गई
यही सोच नया पीढ़ी भी नई

न रहा संयुक्त परिवार दादा-दादी
इलेक्ट्रॉनिक युग सुनाए मुनादी
हसरतें कब मिलीं कुम्हला गईं
यही सोच नया पीढी भी नई

समाज, देश का रहा न कोई सोच
अंतरराष्ट्रीय बनने की नोचम नोच
उच्चता की मृगतृष्णा जड़ छोड़ गई
यही सोच नया पीढ़ी भी नई

धीरेन्द्र सिंह

व्यक्तित्व

खुद से बने वो प्राचीर हो गए
अनुगामी जो रहे तामीर हो गए

स्वनिर्माण भी है बुनियादी संस्कार
पखारा किए खुद को और धो गए

बेजान ही प्रवाह में उछलता खूब
आते हैं जाते हैं अनेकों खो गए

स्वनिर्माता खुद का विधाता भी
पढ़ने की कोशिशों में लोग रो गए

खुद को गढ़ने, पढ़ने में हो व्यतीत
अतीत दर्शाता कहे लो वो गए

फौलाद सी सख्ती मक्खनी कोमलता
ऐसे ही लोग उर्वरा बीज बो गए।

धीरेन्द्र सिंह

बिंदिया

           बिंदिया

एक आग मसल अंगुलियों में
बिंदिया बना दूं
भाल पर ताल ज़िन्दगी का दे
सरजमीं सजा दूं
सम्मोहित दृष्टि की वृष्टि में
तिरोहित आकांक्षाएं
रूप के ओ अप्रतिम अंदाज़
आ दिलजमीं बना दूं

अनूठेपन धारित आलोकित रूप
रश्मियाँ छंटा दूं
लपेटकर अपनी अंगुलियों में प्रीत
युक्तियां अटा दूं
सुर सितार कपाल ध्वनित करे
समर्पित बेसुध अंगुलियां
प्रेम गहनता समेट बिंदिया की
रीतियां बसा दूं

एक आग मसल अंगुलियों में
बिंदिया बना दूं
ललाट लहक उठे ज्वाल प्रीत
सिद्धियां बहा दूं।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

ऐसी ना आप करो ठिठोली
अबकी बहकी होली में
भींग चुकी हो रंग-रंग अब
भावों की हर टोली में

कोरी चूनर की मर्यादा
पुलकित रहे हर टोली में
बहकी चाल बनाओ अबकी
पिय बहियन रंगोली में

फागन तो खोले हर आंगन
छाजन अंगों की बोली में
आत्मगुंथन भावुक बंधन
महके चंदन इस होली में

साजन निरख रहे दृग चार
मृग कुलांच किल्लोली में
शर्म से लाल म लाल हुई जो
होली रंग गई होली में।

धीरेन्द्र सिंह
कैसी-कैसी कसक रही बोली है
मौसम ले अंगड़ाई बोले होली है

कल्पनाएं रचाएं व्यूह रचना अजब
खुद को सायास कोशिश रखें सजग
गज़ब-अजब अंदाज़ अलबेली रसबोली है
मौसम ले अंगड़ाई बोले होली है

जाड़े का मौसम न आड़े आए अभी
कुर्ता, पायजामा, चुनर हैं लहकाए सभी
यहां दांव, वहां ठांव, चितवन चुहेली है
मौसम ले अंगड़ाई बोले होली है

जिसके जैसे भाव वैसी योजना निभाव
शहर-शहर पगलाया, बौराया है गांव
कोई संकेत मात्र, कोई हुडदंगी टोली है
मौसम ले अंगड़ाई बोले होली है

रंगों का पर्व होली, भींगे कुर्ता-चोली
उमंग हो तरंगित, उन्मादित जीवन पहेली
व्यक्ति के व्यक्तित्व को बहुरंगी खोली है
मौसम ले अंगड़ाई बोले होली है

कैसी-कैसी कसक रही बोली है
मौसम ले अंगड़ाई बोले होली है।

धीरेन्द्र सिंह

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

गेसुओं की छांव

नवीनता के लिए उम्दा जज्बा चाहिए
गेसुओं की छांव का सघन कब्जा चाहिए

कुछ भी अकेले न कर सके कोई तो
पलकें हों बोलतीं लरज सजदा चाहिए

बहुत दूरी है भौगोलिक उनकी तो अभी
एहसासी छुवन भी तो गरजता चाहिए

उनके बिना अस्तित्व की क्या कल्पना
बदली बिना ज्यों सावन बरसता चाहिए।

धीरेन्द्र सिंह

मेरी मिल्कियत

मैं अपनी हद में जी रहा
यह है मेरी मिल्कियत
खुश रहूँ या नाखुश मैं
क्यों बिगड़े उनकी तबियत

किसी के हांथों पर माहताब
खिले न खिले, काबिलियत
परिणय का हो या प्रेम का
क्यों बिगड़े उनकी तबियत

खुशियां लपेट कर हुलसे
प्रसन्नता ना जम्हूरियत
गौरैया जो चहके मुंडेर मेरे
क्यों बिगड़े उनकी तबियत

उपलब्धियों के पहाड़ उन्नत
समुन्नत प्रखर और खासियत
डफली पर बजे उल्लास
क्यों बिगड़े उनकी तबियत

अलगनी पर कपड़े सी ज़िन्दगी
जीवन फिर भी रुमानियत
जिगर जज्बात का दिप्त आफ़ताब
क्यों बिगड़े उनकी तबियत।

धीरेन्द्र सिंह

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

सृष्टि आकृष्ट हो समिष्ट हो गई
अर्चनाएं अनुराग की क्लिष्ट हो गई

व्यक्तित्व पर व्यक्तित्व का आरोहण
गतिमानता निःशब्द मौन दृष्टि हो गई

प्रांजल नयन सघन गहन अगन
दाह तन स्पर्श कर वृष्टि हो गई

वैराग्य जीवन स्वप्न या छलावा एक
निरख छवि मनबसी दृष्ट हो गई।

धीरेन्द्र सिंह
बस मुनादी
ध्वनि उदासी
उत्सवी रह-रह तमाशा
राजभाषा

जो रहा 80 दशक में
जारी है अब भी मसक के
नवीनता लिए हताशा
राजभाषा

प्रबंधन ने दी स्वतंत्रता
कार्यान्वयन बस मंत्रणा
खूब शब्दों ने तराशा
राजभाषा

हैं स्वतंत्र वैचारिक परतंत्र
नीतियों में उलझे से यंत्र
नई सोच तरसे जन जिज्ञासा
राजभाषा

कौन है राजभाषा अधिकारी
क्या शब्दों कार्यान्वयन गुणकारी ?
इनपर ही क्यों टिकी बस आशा
राजभाषा।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

प्यार के बयार में नए श्रृंगार
मन अतुराये लिए नई तरंग
कोई यूं आया मन-मन भाया
महका परिवेश ले विशिष्ट गंध

भावनाएं उड़ने लगीं आसक्ति डोर
मोर सा मन चले मुग्धित दबंग
बदलियों सा खयाल गतिमान रहे
कल्पनाएं कर रहीं आतिशी प्रबंध

अकस्मात का मिलन वह छुवन
हसरतें विस्मित हो हो रही दंग
सृष्टि विशिष्ट लगे बहुरंगी सी सजी
परिवेश निर्मित करे उन्मुक्त निबंध

सयंम और धैर्य की जीवनीय सलाह
हमराही की सोच अनियंत्रित अंग
संभलने की कोशिशें बहकाए और
शिष्टाचार अक्सर करे प्यार को तंग।

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

अब तुम
तुम ना रही
सिंचित हो चुकी
मुझमें
कहो क्या अनुभूति है

स्पर्श
मिल सहर्ष
आनंद का ले स्वर्ग
उड़ रहा मुझमें
कहो क्या अनुभूति है

चांद ठिठका
मध्य रात्रि
नयन गगन
सृष्टि न्यास्ति
अगवानी पुलके
रह-रह मुझमें
कहो क्या अनुभूति है

दिवस है आज
मदनोत्सव
कहो न आज कुछ
मेरी मनभव
प्यार ही साँच है
घुमड़े है
मुझमें
कहो क्या अनुभूति है।

धीरेन्द्र सिंह