ऱंगों का पर्व आया रंग गई हवाएं
मंद कभी तेज चल संदेसा लाएं
एक शोखी घुल कर फिज़ाओं में
पुलकित फुलवारी जैसी छा जाए
अबीर,गुलाल से शोभित हो गुलाब भाल
सुर्ख गाल देख चिहुंक रंग भी भरमाए
अधरों की रंगत छलक-छलक जाए तो
पिचकारी के रंग सब भींग के शरमाए
रंगों के पर्व पर मन हुआ अजीब है
जियरा की हूक बेचैनी दे तड़पाए
फाग की आग में कुंदनी कामनाएं
चोटी पर पहुंच दूर से किसे बुलाए
सत्य का यह विजय पर्व सबको लुभाए
होलिका दहन में राग-द्वेष सब जल जाए
आ गई रंग लेकर के फिर होली यह
ना जाने यह रंग कब किसको छल जाए,
भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.