शनिवार, 27 नवंबर 2021

तुम और चांद

 तुम आयी कि, आया चांद

आतुर छूने को, खिड़की लांघ

उचट गयी लखि यह तरुणाई

मध्य रात्रि, दिल की यह बांग


अर्धचंद्र का यह निर्मित तंत्र

संयंत्र हृदय का लेता बांध

तुमको हर्षित हो, उपमा प्रदत्त

शीतकाल में, उघड़ा चले माघ


निदिया भाग गई, लगे रूठ

जैसे तुम रूठती, प्रीत नाद

चांद की यह बरजोरी कैसी

रूठे युगल को, देता गहि कांध


चुम्बन शुभ रात्रि का लेकर

छुवन, दहन, सिहरन को फांद

चांद पहरुआ खिड़की झांके

रात्रि प्रहर अभिनव निनाद।


धीरेन्द्र सिंह

27.11.2021

रात्रि 01.30

रविवार, 21 नवंबर 2021

इंसानियत

 भावों से भावना का जब हो विवाद

तथ्य तलहटी से तब गंभीर संवाद

उचित लगे या अनुचित कृत्य वंशावली

आस्थाओं की गुम्बद से हो निनाद


धुंध भरी भोर में दब जाती रोशनी

सूरज भी ना उभर पाए ले प्रखरवाद

अपेक्षाएं चाहें सुरभित, सुगंधित सदा

संभव है क्या जी पाना बिन प्रतिवाद


प्रकृति की तरह व्यवहार लगे परिवर्तित

तथ्य रहे सदा अपरिवर्तित निर्विवाद

यह कहना कि वक़्त का है खेल यह

इंसानियत यूँ ही कब हो सकी आबाद।

धीरेन्द्र सिंह

साथ निभाना

 साथ चलना

और साथ निभाना

यह सोच

क्या लगे न बचकाना !

नवंबर के अंतिम सप्ताह में

मेरे शहर रात्रि बारिश

मेघ गर्जना

विद्युत की किलकारियां

शीतल चला पवन

कितना  विपरीत मौसम,

दिन भर शहर में उमस

शाम तका आसमान

थी बदरियों की गलबइयाँ

झूमते,लहराते बादलों के झुंड

यूँ लगे जैसे एकाकार का

प्रदर्शन श्रेष्ठ,

आजीवन साथ निभाने का वादा

हां यही तो था आसमान

बहका नहीं हूं भाव ज्यादा,

पवन की बदली गति

व्योम की पलटी मति

टकराने लगी बदरिया

ले अपनी-अपनी जल गगरिया,

गर्जन, विद्युत नर्तन

क्या अहं का था टकराव,

क्या यही आजीवन निभाव,

एक-एक कर टूट गयी

गगरिया सारी बरस गयी,

आज की बारिश ने बताया

अकेला ही चल जीवन में 

अहं का न हो छलावा

या स्वार्थ पूर्ति का शोषण,

टूट जाएगा वरना

खुद से कर खुद का पोषण।


धीरेन्द्र सिंह