बुधवार, 1 दिसंबर 2010

गुंईया बन गए हम

अभी भी सलवटें सुना रहीं हैं दास्तान 
मौसम ने ली थकन भरी अंगड़ाई है
चादर में लिपटी   देह गंध भी बुलंद है

एक अगन हौले से  गगन उतर आई है

मन के द्वार पर है बुनावट सजी रंगीली

समा यह बहकने को फिर बौराई है
खनकती चूड़ियों में प्रीत की  रीत सजी
उड़ते चादर में सांसो की ऋतु छाई है.

एक अनुभव में ज़िन्दगी, बन्दगी सी लगे
शबनमी आब है, मधु बनी तरूणाई है
छलकते सम्मान में   निज़ता का आसमान है
चादर पर पसरी रोशनी फिर खिलखिलाई है.

इस चादर में हमारे गागर के हिलोरे हैं

कुछ अपने हैं कुछ सुनामी दे पाई है
बांटने से गुनगुनाए ज़िन्दगी की धूप
गुंईया बन गए हम यह बोले तरूणाई है.

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

शब्दों से छलके शहद

शब्दों से छलके शहद फिर हद कहॉ
वेदना तब गेंद सी लुढ़कती जाए
एक छाया बाधाओं को नापती पग से चढ़े
एक सिहरन हंसती नस में उछलती जाए

भावों के आलोड़न में निहित झंकार है
शब्दों की अलगनी पर बूंदे मटकती जाएं
ताल, लय पर नृत्य करता यह मन बावरा
जैसे हरी दूबों से परती एक भरती जाए

दो नयन मुग्धित मगन हो रसपान करें
होंठों पर स्मिति से वेदना को छीना जाए 
सावनी फ़िजाएं आएं जब मिलो तुम झूम के
शब्द से लिपट यह मन निरंतर भींगा जाए.

सोमवार, 29 नवंबर 2010

हम ढूंढते हैं खुद को


कब-कब लगी है आग, दिल की दुकान में
बोल रही हैं चिपकी राख, मन के मचान में.

पहले जब था तन्हा तो, थी तनहाई की जलन
मनमीत की तलाश में, थी मिश्री जबान में.

कब वो मिले, कब मिले-जुले, खबर ना लगी
टूटता है बन्धन भी, दिल के सम्मान में.

रेत पर अब भी हैं गहरी, हमसाथ की लकीरें
चाहत चमकती रहती है,  मौसमी तूफान में.

तब भी कहा गया नहीं, अब भी ना बोल निकले
हम ढूँढते हैं ख़ुद को, ख़ुद  के ही अरमान में.

रविवार, 28 नवंबर 2010

मेंहदी

खिल-खिल हथेलियों पर, मेहँदी खिलखिलाए रे
अपनी सुंदरता पर, प्रीत बिछी जाए रे,
कुहक रही सखियॉ सब, कोयलिया की तान सी
हिय में नया जोश भरा, छलक-छलक जाए रे

मेहँदी सब देखे, सब जाने-बूझे बतिया
अँखियन के बगियन में, सपन दे सजाए रे
ऐसी निगोड़ी बनी, छोरी छमक सखियॉ सब
साजन का नाम ले, हिया दे बहकाय रे

अधरों पर सजने लगे, सावनिया गान सब
सॉवरिया सजन अगन, दिया दहकाय रे,
बरसा की बूंदे भी, छन-छन कर उड़ जाए
बदन के ऑगन में, नया राग बजा जाए रे.