शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

सुतृप्ता, अतृप्ता

 सुतृप्ता, अतृप्ता, स्वमुक्ता


सुतृप्ता

एक नारी

एक रचना

एक कृति

एक वृत्ति


अतृप्ता

एक क्यारी

मति दुधारी

नया तलाशती

निस संवारती


स्वमुक्ता

एक अटारी

उन्नयनकारी

भाव चित्रकारी

ऋतु न्यारी


सुतृप्ता, अतृप्ता, स्वमुक्ता

जीवन इनसे चलता, रुकता

सुतृप्ता, स्वमुक्ता निधि सारी

अतृप्ता घातक साहित्य सूखता


अतृप्ता से बचने का हो उपाय

साहित्य हरण का लिए स्वभाव

लील जाए सर्जक और सर्जना

इसलिए लिखा, हो साहित्य बचाव।


धीरेन्द्र सिंह


11.01.2024

17.01

नया क्या खिलेगा

 मुझे इतना पढ़ ली नया क्या मिलेगा

नया ना मिला तो नया क्या खिलेगा


प्रहसन नहीं है प्रणय की यह डगर

सर्जन नहीं है अर्जन की कहां लहर

नवीनता में ही नव पथ्य खुलेगा

नया न मिला तो नया क्या खिलेगा


एक आदत हो जाए तो प्रीत पुरानी

एक सोहबत सहमत तो गति वीरानी

हर कदम बेदम ना नई राह चलेगा

नया न मिला तो नया क्या खिलेगा


जीवन में मनुष्य होता नहीं है रूढ़

धरा और व्योम वही, विभिन्नता आरूढ़

भाव पंख खुले तो वही सृष्टि रंगेगा

नया न मिला तो नया क्या खिलेगा।


धीरेन्द्र सिंह


12.01.2024

14.48

गुरुवार, 11 जनवरी 2024

स्वांग है

 पहल का प्रथम प्रहर अनुराग है

शेष तो बस संतुलित स्वांग है


सत्य प्रायः रह जाता है अबोला

असत्य ही प्रखर होकर है बोला

सामाजिकता में निर्मित ऐसा प्रभाग है

शेष तो बस संतुलित स्वांग है


भाव उल्लेख की कई अभिव्यक्तियां

यही आहत करतीं सरगमी नीतियां

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही राग है

शेष तो बस संतुलित स्वांग है


चल पड़ा जो राह विश्वास संग एकल

समाज तो क्या विश्व हुआ बेकल

रचित गठित ही सामाजिक मांग है

शेष तो बस संतुलित स्वांग है


नाद के निनाद में क्यों विवाद

भाव विभोरता पर क्यों आघात

हृदय पूजित का ही भान है

शेष तो बस संतुलित स्वांग है।


धीरेन्द्र सिंह


12.01.2024

07.11

प्यार का टर्मिनस

 प्रणय का है होता किस उम्र में सुयश

कोई तो बता दे प्यार का टर्मिनस


बहुत ढूंढने पर प्यार तथ्य न मिला

लोग कहते है जारी वही सिलसिला

अंदाज अपने-अपने, अदाओं की कसक

कोई तो बता दे प्यार का टर्मिनस


कुछ कहें प्यार बंद, भक्ति को हो लिया

प्यार समाहित उनकी भक्ति की बोलियां

मार्ग कोई भी हो प्यार चाहे चहक

कोई तो बता दे प्यार का टर्मिनस


एक बंधन लगा चंदन, है मन वंदन

राह कोई भी हो प्यार का हो क्रंदन

मन मारकर कुछ चुप ले कश्मकश

कोई तो बता दे प्यार का टर्मिनस


स्व को मुक्त करने के सब प्रयास

स्व मुक्त उड़ान हेतु कब से उजास

प्यार लौकिक-अलौकिक लिए अमृत रस

कोई तो बता दे प्यार का टर्मिनस।


धीरेन्द्र सिंह


11.01.2024

16.04

बुधवार, 10 जनवरी 2024

तुम में

 केशों में तुम्हारे शब्दों को सजाकर

भावनाओं की कंघी से केश संवारकर

कुछ गीत प्रणय के कर दूं तुम्हारे प्राण

आत्मा की आत्मा से नींव बनाकर


भावनाओं पर भावनाओं को बसाकर

तिनके सा बह चले जिंदगी नहाकर

इतनी आतुरता तो हुई न अकस्मात

क्या-क्या गए सोच एक तुमको चुराकर


मन से उठे गीत होंठ देने लगे शब्द

अंगड़ाईयों को यूं तनहाईयों में गाकर

तुमको ही लिपटा पाता शब्दों में सुगंध

एक मदहोशी की खामोशी में छुपाकर


यह प्रवाह प्रणय या व्यक्तित्व तुम्हारा

क्यों लगने लगा प्रीत तुम्हारा चौबारा

निवेदित नयन के आचमन कर लिए

तब से लगने लगा तुम में जग सारा।


धीरेन्द्र सिंह


10.01.2024

23.36

मंगलवार, 9 जनवरी 2024

विश्व हिंदी दिवस

 हिंदी विश्व दिवस

कौन मनाता सहर्ष

कागज का यह घोड़ा

हिंदी का कहां उत्कर्ष


एक शोर अनर्गल

कहता है चल

भाषा भाग्य विधाता

भाषा पर मचल


मोबाइल संचालन में

प्रौद्योगिकी आंगन में

सिर्फ जुड़ा बाजार

शेष आंग्ल छाजन में


कठिन है जगाना

अर्थ किसने जाना

योग्यता का क्या

जिससे न मिले खाना


हिंदी विश्व दिवस

मिले तुझे सुयश

अर्थ मिले अपार

मिले ना अपयश।



धीरेन्द्र सिंह

10.01.2024

12.52

सहन की महारानी

 हथेलियों की अंगुलियां उलझाना चाहता हूँ

तुम्हारे दर्द को मैं यूं पहचानना चाहता हूँ


बहुत हो छिपाती तुम अपनी कहानी

खुशियां लपेटे सहन की ऐ महारानी

तुम्हें तुमको तुमसे आजमाना चाहता हूँ

तुम्हाडे दर्द को मैं यूं पहचानना चाहता हूँ


जब भी करूं प्रश्न देती हो मुस्करा

अदा से कह देती मुझसा न मसखरा

राज दिल के तुम्हारे मांजना चाहता हूँ

तुम्हारे दर्द को मैं यूं पहचानना चाहता हूँ


बड़ी ढीठ हो कहते-कहते रुक जाती

धुआं फैल जाता न जलती है बाती

दिए मन के तुम्हारे लौ सुहाना चाहता हूँ

तुम्हारे दर्द को मैं यूं पहचानना चाहता हूँ।


धीरेन्द्र सिंह

10.01.2024


06.14

चली गई

 कौन जाने कौन सी बला टल सी गई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई


सुबह होते ही व्हाट्सएप पर झंकार

प्रीतमयी संवेदना का आदर सत्कार

नित नए अंदाज चाहे बातें भी नई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई


मैंने नहीं मेरे घर ने भी दिया दुत्कार

हिम्मती थी वह प्रतिदिन की अभिसार

चेतना में वेदना की संवेदना लड़ी गई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई


वर्ष तक किया उसकी चंचलता पर वार

इधर-उधर फुदकने से मानी ना हार

एक संग कई को घुमाती गली गई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई


अब मस्तिष्क मुक्त सजाए निस सर्जनाएं

साहित्य में घटित वही भाव लिखते जाएं

पकड़ ली, जकड़ ली लहर थी डंस गई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई।


धीरेन्द्र सिंह

09.01.2024


18.56

सोमवार, 8 जनवरी 2024

मालदीव हो गए

 कैसे कहें वह आत्मिक सजीव हो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए


भव्यता में सम्मिलित अभिनव योगदान

अभिव्यक्तियों में फूंके मिल चेतना प्राण

विवादखिन्नता में भ्रमित परजीव हो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए


पहले था समर्पण प्राप्त करता अनुराग

लक्षदीप सा गूंजा और हो गया विवाद

झूठे गुरुर में आधार निर्जीव बो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए


उपकार और सम्मान में हो मदांध

सोचकर बढ़े है सशक्त दूजा कांध

 देखते ही देखते वह अतीत हो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए


यह था सतत प्रयास उसी राह लौट आएं

पहले की तरह उन्मुक्त होकर खिलखिलाएं

सोशल मीडिया छोड़ रिक्त नींव हो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए।


धीरेन्द्र सिंह

08.01.2024


22.34

ना मानें

 तृषित है अधर मगर रीत न्यारी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी


यह रचना नहीं एकल सद्प्रयास

रहे दो हृदय एक-दूजे के निवास

बोया कोई काटे जबर तरकारी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी


ना बोलें रहें चुप पूछें जो कुछ

क्या प्रणय प्रवृत्ति होता है गुपचुप

करें विरोध खाएं कसम महतारी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी


यह तृष्णा अजब कई लोग बेसमझ

स्व में ही सरोवर पर लहर की अरज

स्वीकारना ही है क्या आत्म आरी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी


बहकने भटकने की नव डगर है

कहो और कितनों पर रखे नजर है

वही संग हो जो उमंग प्रीतकारी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी।



धीरेन्द्र सिंह

08.01.2024

06.31

रविवार, 7 जनवरी 2024

छोरी

 चाहत की इतनी नहीं कमजोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


गर्व के तंबू में तुम्हारा है साम्राज्य

चापलूसों संग बेहतर रहता है मिजाज

सत्य के धरातल पर क्षद्मभाव बटोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


उम्र कहे प्रौढ़ हो, किशोरावस्था लय है

जहां भी तुम पहुंचो, तुम्हारी ही जय है

तुम हो तरंग बेढंग की मुहंजोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


राह अब मुड़ गयी इधर से उधर गयी

झंकृत थी वीणा अब रागिनी उतर गयी

सर्जना के शाल ओढ़ाऊँ न सिंदूरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


आत्मा से आत्मा का होता विलय

तुम ढूंढो आत्मा में दूजा प्रणय

सुप्त यह गुप्त, निरंतर है लोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी।



धीरेन्द्र सिंह

08.01.2024

08.48

क्या करूँ

 चांदनी बादलों से अचानक गयी सिमट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट


प्यार उर्ध्वगामी इसकी प्रकृति ना अवनति

यार मात्र एक ठुमकी सहमति या असहमति

प्यार ना सदा मृदुल राह यह है विकट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट


आज भी आकाश में दौड़ रहे हैं मेघ

चांदनी कब मिले, क्या लगाएं सेंध

द्विज में ही गति, बूझना कठिन त्रिपट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट


चांदनी है चंचला चांद को न आभास

जलभरे बादलों में भी है अनन्य प्यास

प्रेम एक से ही होता बोलता विश्व स्पष्ट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट


एक प्रतीक्षा प्यार का दिव्यतम अभिसार का

नभ में नैतिकता के भव्यतम स्वीकार का

यदि प्रणय प्रगल्भ तो चांदनी चुम्बक निपट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट।


धीरेन्द्र सिंह


07.01.2024

19.44