रविवार, 30 जून 2024

दर्द

 यह नहीं कि दर्द मुझ तक आता नहीं

दर्द की अनुभूतियों का मैं ज्ञाता नहीं

शिव संस्कृति का अनुयायी मन बना

काली के आशीष बिन दिन जाता नहीं

 

संस्कृति और संस्कार यदि संतुलित हो

सहबद्धता प्रतिबद्धता विजाता नहीं

गरलपान, मधुपान, जलपान आदि कहें

मातृशक्ति के बिना कुछ भाता नहीं

 

अनेक नीलकंठ अचर्चित असाधारण हैं

काली के रूप में सक्रिय विज्ञाता कहीं

सहन की शक्ति भी दमन ऊर्जा सजाए

दर्द एक मार्गदर्शी दर्द यूं बुझाता नहीं।

 

धीरेन्द्र सिंह

30.06.2024

16.37



शुक्रवार, 28 जून 2024

भीड़

 कैसी यह मंडली कैसा यह कारवां

भीड़ की बस रंग डाली-डाली है

रौद्र और रुदन से होता है जतन

उलाहने बहुत कि निगाहें सवाली हैं

 

क्या करेगी भीड़ व्यक्तियों की मगर

अगर हृदय चेतना बवंडर सवाली है

वर्षा जल सींच रहे पौधे किनारों के

कौन अजनबी कह रहा वह माली है

 

भीड़ एक शोर है मंडली तो गलचौर है

साजिंदे एकल हैं संगीत की रखवाली है

धुनों में, सुरों में, बेसुरा का काम क्या

थाप नए गीत की भाव नव हरियाली है।

 

धीरेन्द्र सिंह

29.06.2024

10.21



बहार

 हृदय की अनुभूतियों में कोमल सा छन्न

धन्य उस अनुभूति का एकाकार हो गया

भावनाएं उत्सवी उल्लास में हंगामा करें

धड़कनें आतिशबाजी सी कहें प्यार हो गया

 

ऑनलाइन लाइक करती यही उनका धूप

डीपी का चेहरा अनुरागी कहांर हो गया

मेरी प्रत्येक पोस्ट पर आगमन हो उनका

देखते ही देखते मन खोल द्वार खो गया

 

ऐसी भी हो रही हैं अब रचित कद्रदानियां

प्रणयवादियों में नवीन अविष्कार हो गया

प्यार तो अंतर्मन की पुलकित फुलवारी है

वह समझें ना समझें जीवन बहार हो गया।

 

धीरेन्द्र सिंह

29.06.2024

07.59



कैसी आवाज है

 हर मौसम का अपना ही मिज़ाज है

हर मोहल्ले का अपना ही समाज है

अनेकता में एकता की है बुनियाद

लोग कहने लगे कि यह राजकाज है


तर्क के गलीचे पर शब्दों के गुलदान

सजावटी परिवेश में होता कलआज है

आश्वासनों में भुलावे का चलन है

अभिलाषाओं की तलहटी में राज है


हर बंद दरवाजे में निजता का राग है

द्वार घंटी लिए अलग-अलग साज है

किवाड़ खोलिए कि अंदर जज्बात भरे

भ्रमित, शमित, रचित कैसी आवाज है।


धीरेन्द्र सिंह

29.06.2024

07.24



गुरुवार, 27 जून 2024

इतिहास

 जो हमने पढ़ा है और सुना है
उनमें तुम हो कहीं भी नहीं
इतिहास भी तो छुपाता बहुत.
भला बिन तुम्हारे इतिहास कहीं
 
तुम्हें ही तो पड़ता रहा हूँ हमेशा
भले प्रश्नपत्र कभी सुलझता नहीं
तुम्हीं अब बताओ क्या सुलझाएं
इतिहास चर्चा तुम्हारी करता नही
 
राष्ट्र गरिमा में छूटे हैं कई पक्ष
लेखनी इतिहास सत्य बताता नहीं
एक परिवर्तन नव इतिहास में करें
जहां तुम नहीं पठन जिज्ञासा नहीं।
 
धीरेन्द्र सिंह
27.06.2024
19.09


 

बुधवार, 26 जून 2024

श्रमिक

 राहें हैं पर उनपर विरले पथिक हैं
तेज गति वाहनों की लगती होड़ है
श्रमिक भी अब दिखते बहुत कम
मशीनों से मेहनत होती जी तोड़ है

खेत हो खलिहान हो गेहूं या धान हो
हर कार्य मशीन कहें किसानी बेजोड़ है
गांव ढूंढे श्रमिक नहीं, मशीन बुलाइए
शीघ्र कार्य पूर्ण हो फुरसत ताबड़तोड़ है

शहर बना मशीन, संग लेकर संचालक
श्रमिक को कार्य नहीं इसका न तोड़ है
गली-कूचा या हो विस्तृत मैदान कहीं
मशीन सर्वज्ञ अभियांत्रिकी निचोड़ है।

धीरेन्द्र सिंह
27.06.2024
11.24




भ्रम



अर्धनारीश्वर

 पनघट पर बालाओं की बदली सी चाल

मटकी भार संतुलन था या कान्हा तान


कटि पर गगरी कांधे मटकी थी सबकी

कंकड़ियां से फूटी मटकी बाला हंस दी

कान्हा दृष्टि चयन से उभरा एक गुमान

मटकी भार संतुलन था या कान्हा तान


लचक-मटक कर गोपियाँ, राह रिझाएं

एक कन्हैया सबका खेवैया, रोज बुझाएं

चंचलता थी शोखी थी और गहन सम्मान

मटकी भार संतुलन था या कान्हा तान


चलचित्र नायिका, विश्व सुंदरी गह गोपियाँ

पनघट बालाओं की लिए चाल युक्तियां

कटि तन लोच, उद्गम स्त्रोत, पनघट ज्ञान

मटकी भार संतुलन था या कान्हा तान।


धीरेन्द्र सिंह

25.06.2024

18.04



पनघट ज्ञान

 पनघट पर बालाओं की बदली सी चाल

मटकी भार संतुलन था या कान्हा तान


कटि पर गगरी कांधे मटकी थी सबकी

कंकड़ियां से फूटी मटकी बाला हंस दी

कान्हा दृष्टि चयन से उभरा एक गुमान

मटकी भार संतुलन था या कान्हा तान


लचक-मटक कर गोपियाँ, राह रिझाएं

एक कन्हैया सबका खेवैया, रोज बुझाएं

चंचलता थी शोखी थी और गहन सम्मान

मटकी भार संतुलन था या कान्हा तान


चलचित्र नायिका, विश्व सुंदरी गह गोपियाँ

पनघट बालाओं की लिए चाल युक्तियां

कटि तन लोच, उद्गम स्त्रोत, पनघट ज्ञान

मटकी भार संतुलन था या कान्हा तान।


धीरेन्द्र सिंह

25.06.2024

18.04



सोमवार, 24 जून 2024

मन रे कुहूक

 अच्छा, कहिए बात कहीं से

सच्चा करिए साथ यहीं से

व्योम भ्रमण नहीं भाता है

नात गाछ हरबात जमीं से


मन उभरा, रही संयत प्रतिक्रिया

कहे अभिव्यक्ति कोई कमी है

शब्द बोलते, है बात अधूरी

सत्य बोलना कहां कमी है 


अलसाए भावों को, आजाती नींद

अधखिले वाक्य कहें जैसे गमी है

पुलकना चहकना जिंदगी का चखना

मन रे कुहूक, ऋतुएं थमी हैं।


धीरेन्द्र सिंह

25.06.2024

11.05

नैन

शब्द और भाव

 शब्द लगाते भावनाओं की प्रातः फेरियां

स्तब्ध भाव उलझा ले रात्रि की टेरियां

 

प्रतिदिन देह बिछौना का हो मीठा संवाद

कोई करवट रहे बदलता कोई चाह निनाद

यही बिछौना स्वप्न दिखाए मीठी लोरियां

स्तब्ध भाव उलझा ले रात्रि की टेरियां

 

किसको बांधे चिपकें किससे शब्द बोध

शब्द भाव बीच निरंतर रहता है शोध

प्रेमिका सी चंचलता भावना की नगरिया

स्तब्ध भाव उलझा ले रात्रि की टेरियां

 

प्रेमी सा ठगा शब्द चंचल प्रेमिका भाव

शब्द हांफता बोल उठा पूरा कैसे निभाव

अवसर देख स्पर्श उभरा छुवन की डोरियां

स्तब्ध भाव उलझा ले रात्रि की टेरियां।

 

धीरेन्द्र सिंह

24.06.20२4

15.17