शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

नव वर्ष

आज नूतन नव किरण है, तुम कहां
मैं हूं डूबा इक गज़ल में, गुम जहां

कल जो बीता वह ना छूटा राग से
अब भी अनुराग, अभिनव कहकशां

सूर्य रश्मि पीताम्बरी में लिपट धाए
दौड़ता है मन यह आतुर बदगुमां

प्रीति उत्सव संग तरंग, नर्तन करे उमंग
गीत जो बस गए, गुनगुनाए यह ज़ुबां

कौन सी कोंपल नई, उभरी है अबकी
एक शबनम मचल रही, हो मेहरबां

एक संभावना संग, सपने नए मचल उठे
यथार्थ को चरितार्थ करें, मिलकर यहां.


भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

एक दिन

ऑखें ठगी सी रह गईं
क्या आज कुछ कह गईं
परिधान की नव प्रतिध्वनियॉ
तन सम्मान की सरगर्मियॉ

शबनम भी आज पिघल गई
भोर बावरी सी मचल गई
मुख भाव की यह अठखेलियॉ
मुखरित सौंदर्य की पहेलियॉ

पुरवैया क्या यह कह गई
भावनाएं लग रही नई-नई
कुछ भी ना है अब दरमियॉ
भावना की पंखुड़ीली नर्मियॉ.


भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

चॉद,चूल्हा

चॉद, चूल्हा और चौका,चाकर
क्या पाया है इसको पाकर
खून-पसीना मिश्रित ऑगन में
लगती है वह अधजल गागर

रूप की धूप में स्नेहिल रिश्ते
चले वहीं जहॉ चले हैं रस्ते
घर की देहरी डांक चली तो
लगता घर आया वैभव सागर

चाह सुगंध की चतुर सहेली
गॉवों, कस्बों की अजब पहेली
शहरी नारी की चमक की मारी
करती संघर्ष जो मिला है पाकर

नारी गाथाओं की यह अलबेली
खिली, अधखिली पर है चमेली
सृजनधर्मिता आदत है जिसकी
इनकी भी सुध ले कोई आकर.




भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
 शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

बाजारवाद-बहाववाद

ज़िंदगी हर हाल में बहकने लगी
कठिन दौर हंस कर सहने लगी
मासिक किश्तों में दबी हुई मगर
कभी चमकने तो खनकने लगी

बाजारवाद में हर दर्द की दवा हाज़िर
बहाववाद ले तिनके सा  बहने लगी
क्रेडिट कार्ड करे पूरी तमन्नाएं अब
ज़िंदगी हंसने लगी तो सजने लगी

सूर्य सा प्रखर रोब-दाब-आब सा
चांदनी भी संग अब थिरकने लगी
लोन से लिपट आह, वाह बने
कभी संभलने तो बहकने लगी

तनाव, त्रासदी से ऊंची हुई तृष्णा
दिखावे में  ढल ज़िंदगी बिकने लगी
रबड़ सा खिंच रहा इंसान अब
ज़िंदगी दहकने तो तड़पने लगी.



भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

प्याज़

नए सफर की ओर चली
लेकर सरपर अपना ताज
नज़र-नज़र को धता बताकर
उछल रही है प्याज

हॉथों से छू भी ना सकें
रसोई को आए लाज
आंसू बिन अंखिया पथराए
बहुत छकाए प्याज

ऊंची उठती फिर आ जाती
जैसे हो सांजिंदे की साज
मगन,मृदुल जिव्हा हो जाती
पाकर मनचली प्याज

मंडी, ठेले के सब मेले
मिल मांगे दुआएं आज
थाली का माली मिल जाए
सबकी हो जाए फिर प्याज.


भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

रविवार, 19 दिसंबर 2010

मन चिहुंका

शब्दों को होठों से भींचकर
भावना की सीपी को मींचकर
कल्पनाएँ व्यथा की मीत हुईं
बात-बेबात नाराज़गी की रीत हुई

धड़कनों से धड़कनों को खींचकर
चितवन से उपवन को सींचकर
गीत की अठखेलियॉ मन-मीत हुईं
लहरों से लहरों की जीत हुई

आहट से मन को मीत कर
बासंती सरगम की प्रतीत कर
बिरहन राधा सी पीर हुई
चाहत यमुना की तीर हुई


अकुलाहट को पार्श्व में खींचकर
राहत को आहत से जीतकर
मन तरंग रसमयी झंकार हुई
मन चिहुंका फिर वही टंकार हुई.
 

भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
 शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

रूसवाई

आज शबनम भी उबलने लगी है
रोशनी भी बर्फ सी लगने लगी है
इस सुबह का खो गया आफताब
सांसो में आह सी चलने लगी है

ज़िंदगी रूसवा हुई पग खोल गई
बंदगी घुटनों पर मचलने लगी है
सूना-सूना खोया-खोया मंज़र हुआ
तरन्नुम भी अब बहकने लगी है

आपकी इनायत की है दरख्वास्त
धड़कनें भी अब तड़पने लगी हैं
बमुश्किल ज़िंदगी से हुआ था सामना
अब यह कैसी हवा चलने लगी है.



भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

आप जैसे पढ़नेवालों संग

गुम होकर गुलिस्तॉ में छुप जाना चाहिए
लेकर नई खुश्बू रोज़ गुनगुनाना चाहिए

करवट बदलती ज़िदगी कब कर जाए क्या
पुरवट सा खुशियों को अब बहाना चाहिए

नित नई चुनौतियों में संघर्ष,हार-जीत है
निज़ता को बांटकर अजब तराना चाहिए

एक मुस्कराहट से मिले दिल की हर आहट
घबराहट समेटकर संग खिल जाना चाहिए

मन की उमंग पर तरंग हो ना फीकी कभी
आप जैसे पढ़नेवालों संग जुड़ जाना चाहिए.



भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
 अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

मिल रहे हैं द्रोन

कौन है सम्पूर्ण और अपूर्ण कौन
सागर की लहरें मंथर पहाड़ मौन

ज़िंदगी के वलय में एकरूपता कहॉ
तलाशते जीवन में मिल रहे हैं द्रोन

एकलव्यी चेतनाएं अप्रासंगिक बनीं
दरबारियों के विचार हैं तिकोन

अब मुखौटा देखकर लगती मुहर
हर नए हुजूम को बनाती पौन

लक्ष्य के संधान की विवेचनाएं
देगा परिणाम अब बढ़कर कौन.



भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
 अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
 शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

क्यों इतनी दूर हो गईं

अर्चनाएँ अब एक दस्तूर हो गई
खुशियाँ हक़ीकत की नूर हो गई;
इंतज़ार अब तपती धरती सा लगे
बदलियॉ ना जाने क्यों मगरूर हो गई

एक आकर्षण सहज या कि बेबसी महज़
असहजता ज़िंदगी का सुरूर हो गई
एक तपन की त्रासदी की चेतना संग
बारिशों की खातिर जमीं मज़बूर हो गई

क्या यही प्रारब्ध मेरा बन गया है
निस्तब्धता भी लगे गरूर हो गई
कामनाएं पुष्प की देहरी ना चढ़े
आराधनाएं अटककर हुजूर हो गई

चाह के आमंत्रण की अविरल गुहार
राह की रहबर तो चश्मेबद्दूर हो गई
सांत्वनाएं अर्थ अपना छोड़ने लगी हैं
आप मुझसे क्यों इतनी दूर हो गईं.


भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

मुलाकात नहीं होती है

अब कहीं और कोई बात नहीं होती है
भ्रमर-फूलों में अब सौगात नहीं होती है
भावनाएं भी प्रदूषित हो रहीं उन्माद के तीरे
धड़कनों की शर्मीली मुलाकात नहीं होती है

मिले और जुड़ गए मानों पुराना रिश्ता हो
तेज जीवन में अनुराग का क्यों बस्ता हो
प्रलोभन से घिरे मन में बरसात नहीं होती है
निगाहों में छुपाए शाम मुलाकात नहीं होती है

कभी गीतों में ढलकर नई धुन बन जाएं
सांस की तारों पर शबनमों को सजाएं
दो हृदयों में अब पदचाप नहीं होती है
अब मंदिर के बहाने मुलाकात नहीं होती है

प्रौद्योगिकी में है डूब रहा कोमल स्पंदन
प्रगति, उपलब्धि में दमित मानवीय वंदन
यंत्रवत काम में दिलबात नहीं होती है
चांदनी भी ठिठके यह मुलाकात नहीं होती है.



भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

एक शाम

शाम की तलहटी में, आहटों का सवेरा है
डूबते सूरज की मूरत में, छिपा वही चितेरा है
शाम की ज़ुल्फें खुली, हवा भी बौराई है
धड़कनें बहकने लगी, चाहत लगे लुटेरा है

दिनभर की थकन, एक अबूझा सा दहन
हल्की-हल्की सी चुभन, सबने आ घेरा है
कदम भी तेज चले, नयनों में दीप जले
लिपट लूं ख्वाहिशों से, वह सिर्फ मेरा है

ज़िंदगी भागती तो लड़खड़ाती, दौड़ रही 
अपने पल, अपने मन की, मधुमय रेखा है
सिमट लूं संग उनके, पल दो पल चुराकर
आज की बात करूं, कल किसने देखा है.

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

गुंईया बन गए हम

अभी भी सलवटें सुना रहीं हैं दास्तान 
मौसम ने ली थकन भरी अंगड़ाई है
चादर में लिपटी   देह गंध भी बुलंद है

एक अगन हौले से  गगन उतर आई है

मन के द्वार पर है बुनावट सजी रंगीली

समा यह बहकने को फिर बौराई है
खनकती चूड़ियों में प्रीत की  रीत सजी
उड़ते चादर में सांसो की ऋतु छाई है.

एक अनुभव में ज़िन्दगी, बन्दगी सी लगे
शबनमी आब है, मधु बनी तरूणाई है
छलकते सम्मान में   निज़ता का आसमान है
चादर पर पसरी रोशनी फिर खिलखिलाई है.

इस चादर में हमारे गागर के हिलोरे हैं

कुछ अपने हैं कुछ सुनामी दे पाई है
बांटने से गुनगुनाए ज़िन्दगी की धूप
गुंईया बन गए हम यह बोले तरूणाई है.