गुरुवार, 19 सितंबर 2024

कठिन शब्द

 क्यों लिखी जाती है कविता

कठिन शब्दों से,

सरल शब्द भी तो

कह देते हैं वही बात,

अक्सर उठता रहता है

कठिन शब्दों का संवाद;


कौन लिखता है

कठिन शब्द ?

रचनाकार ?

नहीं, लिखती है कविता

खुद की बहाती भावनाएं

शब्द स्वतः ही आ जाते हैं;


सरल शब्दावली में भी

होती हैं कविताएं, 

जब जैसा भाव

वैसे शब्द फुदक आएं,

कविता खुद को लिखती

कैसे कोई समझाए;


उठती हैं प्रचंड आंधियां

भावनाओं की तब

होती है वैचारिक हलचल

और रचनाकार संतुलन बनाता

करता है अभिव्यक्त

शंकर की जटा की तरह

करता नियंत्रित भावनाओं का

गंगाजल;


विकट होती है परिस्थिति

शब्द संगत चाहे अभिव्यक्ति

ऐसे प्रचंड भाव 

नहीं समेट पाते प्रचलित शब्द

तब कविता चुनती है

कम प्रयुक्त शब्द जैसे

चुनता है योद्धा दिव्यास्त्र

युद्ध की भीषणता में;


मत कहिए कठिन शब्द रचित

कविता का है रचनाकार दोषी,

रचनाकार तो भाव के वेग

और अभिव्यक्ति की आतुरता में

करता है संयमित अभिव्यक्ति 

सर्फिंग करते हुए 

कुशल खिलाड़ी सा।


धीरेन्द्र सिंह

19.09.2024

19.30




मंगलवार, 17 सितंबर 2024

चिरौरियाँ

 तत्व के महत्व की मनधारी मनौतियां

घनत्व में सत्व की रसधारी चिरौरियाँ

 

भावनाएं उन्मुक्तता के दांव चल रहीं

आराधनाएं रिक्तता की छांव तक रहीं

पुष्परंग सुगंध की भर क्यारी पंक्तियां

घनत्व में सत्व की रसधारी चिरौरियाँ

 

अस्तित्व के राग में चाहतों का फाग

व्यक्तित्व के निभाव में नातों की आग

तपिश तप खिल रहा कोई कहे घमौरियां

घनत्व में सत्व की रसधार चिरौरियाँ

 

कथ्य व्यक्त विमुक्त तथ्य कब निर्मुक्त

सुप्त गुप्त संयुक्त तृप्त तुंग तीरमुक्त

गूढ़ता लयबद्ध सुर ताल मिल औलिया

घनत्व में सत्व की रसधार चिरौरियाँ।

 

धीरेन्द्र सिंह

18.09.2024

16.15

सोमवार, 16 सितंबर 2024

विसर्जन

 डेढ़ दिन, पांच दिन, सात और दस दिन

गणेश वंदना विसर्जन परम्परा है प्राचीन

 

शिल्पकार छोटी मूर्तियों में दिखाए कौशल

आस्थाएं घर-घर गूंजी होकर भाव विह्वल

अर्चनाएं संग समर्पित लंबोदर के अधीन

गणेश वंदना विसर्जन परम्परा है प्राचीन

 

लालबाग राजा के अम्बानी हैं शीर्ष लगन

इच्छापूर्ति और मूक दो होते रहते दर्शन

अति प्रचंड जन सैलाब दर्शन प्रयास प्रवीण

गणेश वंदना विसर्जन परम्परा है प्राचीन

 

मुंबई के सागर तट विदाई के भव्य मठ

आज सागर हिलोर हर्षित एकदंत देंगे मथ

भव्यता कहे अगले वर्ष हों जल्दी आसीन

गणेश वंदना विसर्जन परंपरा है प्राचीन।

 

धीरेन्द्र सिंह

17.09.2024

01.05



रविवार, 15 सितंबर 2024

टिप्पणी

 महक उठी सांसे सुगंधित लगे चिंतन

शब्द पुष्प आपके टिप्पणी रूपी चंदन


पोस्ट करते रचना तुरंत प्रतिक्रियाएं

जैसे मां सरस्वती के सभी गुण गाएं

अर्चना का प्रभुत्व रचनाएं निस वंदन

शब्द पुष्प आपके टिप्पणी रूपी चंदन


देह की दृष्टि है आत्मा जनित सृष्टि

व्यक्तिगत पहचान नहीं पर हैं विशिष्ट

शब्द आपके करते रचनाओं के अभिनंदन

शब्द पुष्प आपके टिप्पणी रूपी चंदन


सर्जना की दुनिया के आप भाव गीत

ऐसी भी तो होती है अभिनव सी प्रीत

साथ यह रचनाओं का नवोन्मेषी नंदन

शब्द पुष्प आपके टिप्पणी रूपी चंदन।


धीरेन्द्र सिंह

16.09.2024

09.16


अदब

 अजब है गजब है फिर भी सजग है

यह जीवन जी लेने का ही सबब है


एक जिंदगी को सजाने का सिलसिला

मित्रता हो गयी जो भी राह में मिला

हर हाल, चाल ढूंढती एक नबज़ है

यह जीवन जी लेने का ही सबब है


युक्ति से प्रयुक्ति का प्रचुर प्रयोजन

सूक्ति से समुचित शक्ति का संयोजन

सर्वभाव सुरभित स्वार्थ की समझ है

यह जीवन जी लेने का ही सबब है


भाषा, धर्म, कर्म का मार्मिक निष्पादन

बस्तियों का ढंग बदला कर अभिवादन

स्वार्थभरी कोशिश को कहते अदब हैं

यह जीवन जीत लेने का ही सबब है।


धीरेन्द्र सिंह

15.09.2024

23.28


शनिवार, 14 सितंबर 2024

अंगीठी

 कलरव कुल्हड़ मन भर-भर छलकाए

चाहत की अंगीठी लौ संग इतराए


चित्त की चंचलता में अदाओं का तोरण

कामनाएं कसमसाएं प्रथाओं का पोषण

मन द्वार नित रंगोली नई बनाए

चाहत की अंगीठी लौ संग इतराए

 

कलरव कुल्हड़ जब करता है बड़बड़

भाप निकलती है हो जैसे कि गड़बड़

एक तपिश एक मिठास दिन बनाए

चाहत की अंगीठी लौ संग इतराए

 

एक लहर चांदनी सी लयबद्ध थिरकन

कोई कसर ना छोड़े दे मीठी सी तड़पन

कसक हँसत जपत नत प्रीत पगुराए

चाहत की अंगीठी लौ संग इतराए।

 

धीरेन्द्र सिंह

15.09.2024

09.19

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

14 सितंबर

 राष्ट्रभाषा बन न सकी है यह राजभाषा

14 सितंबर कहता क्यों सुप्त जिज्ञासा


देवनागरी लिखने की आदत न रही अब

भारत में नहीं हिंदी बनी विश्वभाषा कब

हिंदी दुकान बन कृत्रिमता की है तमाशा

14 सितंबर कहता क्यों सुप्त जिज्ञासा


हिंदी को संविधान की मिली हैं शक्ति

स्वार्थ के लुटेरे हिंदी से दर्शाते आसक्ति

कुछ मंच ऊंचे कर बढ़ाते हिंदी हताशा

14 सितंबर कहता क्यों सुप्त जिज्ञासा


झूठे आंकड़ों में उलझी हुई है यह हिंदी

फिर भी कहते हिंदी भारत की है बिंदी

बस ढोल बज रहे हिंदी दिवस के खासा

14 सितंबर कहता क्यों सुप्त जिज्ञासा।


धीरेन्द्र सिंह

14.09.2024

05.55




पुकारते रहे

 निगाहों से छूकर बहुत कह गए वह

पुकारते रहे कर गए शब्दों में तह


एक गुहार गुनगुनाती याचना जो की

सहमति मिली प्रसन्न धारा चल बही

टीसती अभिव्यक्तियां शेष जाती रह

पुकारते रहे कर गए शब्दों में तह


कुछ चुनिंदा वाक्य, लिए वही बहाने

असमर्थ कितने हैं, लग जाते बताने

चुप हो जाने को सोचते, गया ढह

पुकारते रहे कर गए शब्दों में तह


रसभरी बातें वह कहें, कह न पाएं

खामोश वह रहें और उनको सुनाएं

धीरे-धीरे खुलना प्रतीक्षा को सह

पुकारते रहे कर गए शब्दों से तह।


धीरेन्द्र सिंह

13.09.2024

22.24