सर्दियों में गर्म साँसों की ही फुहार है
अश्रु बर्फीले टपकते किसको दरकार है
कब छला, कौन छला, कब रुका तो चला
अंकुरण की खबर नहीं संग हवा बह चला
नीतियों की रीतियों में बसा झंकार है
अश्रु बर्फीले टपकते किसको दरकार है
भावनाओं के भंवर में तरसते ही रह गए
कामनाओं में संवर यूं बरसते ही बह गए
भींग जाने पर बोले जेठ की बयार है
अश्रु बर्फीले टपकते किसको दरकार है
मन फुदकते बोले यह नहीं तो वह डाल
स्वर अलापता ही रहा मिला न सही ताल
सत्य उभरा मन ही अपना सरकार है
अश्रु बर्फीले टपकते किसको दरकार है।
धीरेन्द्र सिंह
21.12.2024
15.35