रविवार, 7 अप्रैल 2024

कागतृष्णा


याद उनकी आती क्यों है एकाएक

मन बहेलिए सा क्यों दौड़ पड़ा

काग तृष्णा देख आया सब जगह

अब तो मिलता ही नहीं जलघड़ा

 

रिश्ते के बिना भी रहे हमकदम

जाल कोई सा उनपर आन पड़ा

कोई कहे चतुराई थी सजग तभी

कोई कहे स्वार्थपूरित था ज्ञान खड़ा

 

शब्द सूखे लगने लगे थे भावरहित

और वहीं चाह थी रह तड़पड़ा

एक गया जग गया निज श्वास से

सब वह अपनी अभिव्यक्तियों में बड़बड़ा

 

घेरकर अपने वलय में करे कलह

टेरकर भी रच सका न गीत अड़ा

कागतृष्णा उड़ि चला उसी छोर फिर

तलहटी में जल लिए हो घड़ा पड़ा।

 

धीरेन्द्र सिंह

07.04.2024

17.21