बुधवार, 12 अप्रैल 2023

घुसपैठिया

 जब मैं

तुम्हारी निगाहों से

उत्तर जाता हूँ

दिल में तुम्हारे

और बैठ जाता हूँ

दिल के किसी कोने में

तो तुम

नहीं समझ पाती

यह पैठ

भला कहां समझ आते हैं

शीघ्र घुसपैठिए,


होते जाता हूँ मुग्ध

दिन-प्रतिदिन

देख तुम्हारी कल्पनाशीलता

और विविध शाब्दिक बुनावटें,

दिल कभी मुस्कराता है

कभी होता गंभीर

कभी चंचल चुलबुला

कभी दर्द लकीर

और झपकता है तेज

तुम्हारी पलकों से,


यदा-कदा

करता है जिक्र दिल

मेरे नाम का

तब ठहरती हो क्षण भर

कि कहे दिल कुछ और

पर कुछ और बोलते जाता है,


तुम्हारी तरह

उत्सुक हूँ मैं भी

क्या बोलता है दिल

और जिस दिन

बोल उठेगा दिल

लिख दोगी तुम अपनी

एक नई कविता 

दिल हो जाऊंगा उस दिन

तुम्हारा ओ शुचिता। 


धीरेन्द्र सिंह

12.04.2023

06.02

जीवन

 यादों के बिस्तर पर

अभिलाषाओं की करवटें

सिलवटों में दर्द उभरे

भावनाओं की पुरवटें


दिल में पदचाप ध्वनि

पलक बंद ले तरवटें

अनुभूतियों की आंधी चले

तोड़ सारी सरहदें


विवशता के समझौते हैं

व्यक्ति उड़ रहा परकटे

पुलकावलि करे सुगंधित

तन समर्पित मनहटे


निरंतर जीवन विभाजित

व्यक्तित्व के झुरमुटें

व्यवहार ले बहुरूपिया

जुगनुओं सा जल उठें।


धीरेन्द्र सिंह

12.04.2023

04.35

क्यों श्रृंगार पर रचें

प्रेमिका प्रेमी यदि अपना भगा दे

विखंडित हो ही जाती संलग्नता

विगत जुगनू सा चमका लगे तो

चाह हंसती समाए कुरूप नग्नता


समर्पण करनेवाला करे जब तर्पण

वायदों की चिता सी हो निमग्नता

एक टूटन बिखरने लगे परिवेश भर

व्योम तपने लगे पा राख की दग्धता


कोई दूजा बना अपना, मिल जपना

खपना एक-दूजे की, तन सिक्तता

पाला बदलते, जो करे प्यार अक्सर

छपना देह पर, खुश देख दिल रिक्तता


भावशून्य भी जलते हैं, अलाव बहुत

चर्चे में यही, अलाव रचित स्निग्धिता

तपन का तौर, निज संतुष्टि साधित

दहन में दौर, भाव ग्रसित विरक्तिता


हृदय हारा हुआ सैनिक सा गुमसुम कहीं

तन लगे विजयी सम्राट की लयबद्धता

क्यों श्रृंगार पर रचें रचनाकार सब

भ्रमित राह पर जब प्रीत की गतिबद्धता।


धीरेन्द्र सिंह

11.04.2023

13.36

यादों की छुवन

मन किसी धूप के टुकड़े में डूबी सर्दी है

आप चाहें न चाहें आपकी यह मर्जी है


एक हालत में उलझी हुई है जिंदगी यह

आपकी याद समझना ना खुदगर्जी है


अलहदा मन की आवारगी कह लीजिए 

भरम ना रखिये कि चाहत की अर्जी है


एक सिहरन उठी दौड़ पड़ा याद आईं

छत पर भावनाओं की बिखरी कई जर्दी है


धूप यादों की छुवन की ऊष्मा सी लगे 

या खयालों में बिखरी कोई हमदर्दी है।


धीरेन्द्र सिंह

10.04.2023

06.05

कृष्ण हो जाना

 चाह की गगरी में इश्क का बुदबुदाना

आग दिल की और उनका उबल जाना


यह राह है जीवन की उमंगों की चहल

खयालों में लिपटकर आहिस्ता इतराना


पहली जल वलय है तरंगित परिष्कृत

उपकृत कर अजूबा कृत कर जाना


समन्वय के गणित रहे बनते बिगड़ते

फैसलों के हौसलों में ही सिमट जाना


कर ब्लॉक नई राह को लिए लपक

चाहत के मौसम का यूं बदल जाना


एक राह एक पनघट एक ही गगरिया

गोपियों के ही वश में कृष्ण हो जाना।


धीरेन्द्र सिंह

10.04.2023

03.44

दिमाग से लिखी कविता

चाहत आपके द्वार खड़ा, बन अनुरागी
राहत की क्यों चाह, सभी तो प्रतिभागी
कदम प्रति कदम चयन, मिले चुनौती
कौन सहज धुन संग, प्रीत समभागी

अनुनय-विनय विसर्जित करता प्रायः दम्भ
वर्चस्वता चाह बनाती व्यक्ति हठगामी
प्रीत रीति कोई नीति नहीं जग
धड़कन तड़पन में अक्सर द्रुतगामी

मन की सांखल चढ़ा चतुर बनें सब
और दिमाग के विवाद के दमनामी
कितनों को लपेट, प्रीति चादर संग
बन दबंग कर त्यजन, बने धुनगामी

छल की छननी में छनता जाता इंसान
भाव गगरिया छलकत हो समनामी
झूठ, असत्य, छुपाना युग का है तराना
जीवन एक रहस्य, तथ्य पाना गुमनामी।

धीरेन्द्र सिंह
06.04.2023
06.12
पुणे

पाजी नयन

 गुलाल फेंक पलकों में छुप गयी अंखिया

कहां से भींग आयी बोल पड़ी सब सखियां


एक सिहरन एक चिंतन में लिपटी हुई थी

बात उड़ने लगी रंग ली तो पक्की अंगिया


गुदगुदी कर सताने लगे वह पाजी नयन

गगन को रंगने लगी तन्मयी मन बतिया


चेहरे पर नई चमक सदाबहार यह मुस्कान

एक पल ने रंग दी कब प्यारी सी दुनिया


लोग कहने लगे तितली सी क्यों उड़ने लगी

इश्क़ महकने को कहां उम्र थीं मजबूरियां।


धीरेन्द्र सिंह

05.04.2023

06.19

तृषा की चीख

 तृषा की चीख को जल सुनता नहीं

जलाशय बन रहे कोई गिनता नहीं


बयानबाजी में चर्चित रही प्यास खूब

नमी आंखों की रोई कोई कहता नहीं


सावन ने मचाया शोर दे आश्वासन कई

पावन बूंद ना टपकी कहें समझा नहीं


नदियां भी गयी सूख खेती है पड़ी सूनी

पूजा अर्चनाएं बीती गगन बरसा नहीं


कई झंडों में हुई विभाजित यह बस्ती

तृष्णा तृप्ति व्याकुल कोई जंचता नहीं।


धीरेन्द्र सिंह

04.04.2023

18.14

दंश इश्किया

 बहुत गुमान चांदनी पे अगर प्यार है

खुशनसीब हैं जिनके संग यार है


चांद यूं नहीं उतरता सबकी नजरों में

रात अक्सर करती खबरदार है


अमूमन बज़्म में रहते हैं खामोश

दंश वही जानें जो तलबगार हैं


ओढ़ मासूमियत की चादर अलहदा

दिखाते ऐसे कि वह बेकरार हैं


किसी समूह में या फेसबुक पर मिलें

स्वार्थ की एक नई तलवार हैं


कितने गिरे पा दंश इश्किया इनका

नए की तलाश में यह रचनाकार हैं।


धीरेन्द्र सिंह

03.04.2023

20.10

चाहत

 नरीमन पॉइंट का पत्थर हूँ

तुम हो सागर की लहरें

मिलकर दोनों तो कुछ टूटें

आखिर दृढ़ता वाले जो ठहरे


कितने निश्चिन्त बैठे हैं लोग

ले भाव निभाव इकहरे

लहरें कूद आती सड़कों तक

पत्थर ताकते गहरे-गहरे


लहरें प्रीत संदेसा लाती लगातार

अस्वीकार, पत्थर मन है भरे

ना रुकतीं फिर भी लहरें मतवाली

जीवन कब, जज्बातों को धरे


समझ गयी न आनेवाली ओ लहरें

पत्थर सामने क्यों दिखावा करे

जब तक रहा समाहित, था तेरा

अब किनारे पत्थर, है आग भरे।


धीरेन्द्र सिंह

02.04.2023

21.29