सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

गेसुओं की छांव

नवीनता के लिए उम्दा जज्बा चाहिए
गेसुओं की छांव का सघन कब्जा चाहिए

कुछ भी अकेले न कर सके कोई तो
पलकें हों बोलतीं लरज सजदा चाहिए

बहुत दूरी है भौगोलिक उनकी तो अभी
एहसासी छुवन भी तो गरजता चाहिए

उनके बिना अस्तित्व की क्या कल्पना
बदली बिना ज्यों सावन बरसता चाहिए।

धीरेन्द्र सिंह

मेरी मिल्कियत

मैं अपनी हद में जी रहा
यह है मेरी मिल्कियत
खुश रहूँ या नाखुश मैं
क्यों बिगड़े उनकी तबियत

किसी के हांथों पर माहताब
खिले न खिले, काबिलियत
परिणय का हो या प्रेम का
क्यों बिगड़े उनकी तबियत

खुशियां लपेट कर हुलसे
प्रसन्नता ना जम्हूरियत
गौरैया जो चहके मुंडेर मेरे
क्यों बिगड़े उनकी तबियत

उपलब्धियों के पहाड़ उन्नत
समुन्नत प्रखर और खासियत
डफली पर बजे उल्लास
क्यों बिगड़े उनकी तबियत

अलगनी पर कपड़े सी ज़िन्दगी
जीवन फिर भी रुमानियत
जिगर जज्बात का दिप्त आफ़ताब
क्यों बिगड़े उनकी तबियत।

धीरेन्द्र सिंह

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

सृष्टि आकृष्ट हो समिष्ट हो गई
अर्चनाएं अनुराग की क्लिष्ट हो गई

व्यक्तित्व पर व्यक्तित्व का आरोहण
गतिमानता निःशब्द मौन दृष्टि हो गई

प्रांजल नयन सघन गहन अगन
दाह तन स्पर्श कर वृष्टि हो गई

वैराग्य जीवन स्वप्न या छलावा एक
निरख छवि मनबसी दृष्ट हो गई।

धीरेन्द्र सिंह
बस मुनादी
ध्वनि उदासी
उत्सवी रह-रह तमाशा
राजभाषा

जो रहा 80 दशक में
जारी है अब भी मसक के
नवीनता लिए हताशा
राजभाषा

प्रबंधन ने दी स्वतंत्रता
कार्यान्वयन बस मंत्रणा
खूब शब्दों ने तराशा
राजभाषा

हैं स्वतंत्र वैचारिक परतंत्र
नीतियों में उलझे से यंत्र
नई सोच तरसे जन जिज्ञासा
राजभाषा

कौन है राजभाषा अधिकारी
क्या शब्दों कार्यान्वयन गुणकारी ?
इनपर ही क्यों टिकी बस आशा
राजभाषा।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

प्यार के बयार में नए श्रृंगार
मन अतुराये लिए नई तरंग
कोई यूं आया मन-मन भाया
महका परिवेश ले विशिष्ट गंध

भावनाएं उड़ने लगीं आसक्ति डोर
मोर सा मन चले मुग्धित दबंग
बदलियों सा खयाल गतिमान रहे
कल्पनाएं कर रहीं आतिशी प्रबंध

अकस्मात का मिलन वह छुवन
हसरतें विस्मित हो हो रही दंग
सृष्टि विशिष्ट लगे बहुरंगी सी सजी
परिवेश निर्मित करे उन्मुक्त निबंध

सयंम और धैर्य की जीवनीय सलाह
हमराही की सोच अनियंत्रित अंग
संभलने की कोशिशें बहकाए और
शिष्टाचार अक्सर करे प्यार को तंग।

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

अब तुम
तुम ना रही
सिंचित हो चुकी
मुझमें
कहो क्या अनुभूति है

स्पर्श
मिल सहर्ष
आनंद का ले स्वर्ग
उड़ रहा मुझमें
कहो क्या अनुभूति है

चांद ठिठका
मध्य रात्रि
नयन गगन
सृष्टि न्यास्ति
अगवानी पुलके
रह-रह मुझमें
कहो क्या अनुभूति है

दिवस है आज
मदनोत्सव
कहो न आज कुछ
मेरी मनभव
प्यार ही साँच है
घुमड़े है
मुझमें
कहो क्या अनुभूति है।

धीरेन्द्र सिंह