मन के भाव, मारे बूझबूझ कलइयां
मन अकुलाए कहे, गयी कहां गुइयाँ
भव्यता की भीड़ में आलीशान नीड़ है
सभ्यता के रीढ़ में बेईमान पीर है
भावनाएं सौम्यता से ले रही बलैयां
मन अकुलाए कहे, गयी कहां गुइयाँ
कोई न पहचान पाए मन की व्यथा
जो भी मिले कह सुनाए अपनी कथा
जीवन में जीवन की अनगढ़ गवैया
मन अकुलाए कहे, गयी कहां गुइयाँ
एक लक्ष्य, एक सत्य, कहां एकात्मकता
विकल्प उपलब्ध कई उनसे सकारात्मकता
समर्पण स्थायी, यौवन में कहां भईया
मन अकुलाए कहे, गयी कहां गुइयाँ
सत्य की प्रतीति है फिर भी मन मीत है
आजकल के प्यार की यही जग रीत है
पकड़-छोड़ फिर पकड़ खेलम खेलइया
मन अकुलाए कहे, गयी कहां गुइयाँ।
धीरेन्द्र सिंह
12.12.2023
09.23