रात बहेलिया बनकर
अपना काला जाल
फेंक रही है
अति विस्तृत
अति महत्वाकांछी,
चांदनी नहीं आ रही
पकड़ में
जाल घूम रहा है
कुत्तों से बचते-बचाते
भौंकते झपटते हैं
जाल पर,
रात अभी तेजी से
दौड़ती गुजरी है
मेरे पास से
और में उठ बैठा
रात्रि के एक बजे,
चमगादड़ अलबत्ता
कर देते हैं उत्सुक
जाल को
और बहेलिया रात
लपक दौड़ती है
चमगादड़ में ढूंढने
चांदनी,
सन्नाटा वादियों की
गहराई से गहन है
सडकें लग रही है
खूबसूरत
दूर-दूर तक,
थकी निढाल उनीदी,
बहेलिया सम्भालस जाल
चार रहा है पकड़ना
चांदनी,
मुझे क्या
नींद आ रही है,
बौराया बहेलिया
दौड़ाता भागता रहेगा
भोर तक,
चांदनी ? फिर चांदनी कहां,
सोते हैं।
धीरेन्द्र सिंह
02.09.2025
01.05