सब कुछ बदल देंगे, कथ्य डंटा है
यह राय है समय का, सत्य बंटा है
एक हौसला से ही हो पाता फैसला
कुछ बात है कि लगे हौसला छंटा है
डैने पसारकर उड़ने की समय मांग
छैने में बैठकर सिर्फ बातों की छटा है
संस्कृतियां ले रही हैं बेचैन करवटें
कह रही सभ्यता कि अब क्या घटा है
कहीं व्योम है सिंदूरी कहीं श्यामलता
कहीं उर्वरक धरा कहीं बंजर अड़ा है
प्रगति की दौड़ में द्रुत गतिमान दिशाएं
लगने लगा अपरिचित जो संयुक्त धड़ा है
भाषा के नाम पर अभिव्यक्तियों के बाड़
धर्म के नाम पर मानव सत्कर्म मथा है
अब कर्म ही आधार, सर्व सुखदाई रहें
जनकल्याण विश्व का हो चाह दृढ़ खड़ा है।
धीरेन्द्र सिंह
10.08.2025
18.46
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