खुद में खुद को बांटना चाहता है
व्यक्ति परिवेश से भागना चाहता है
एक घुटन में सलीके से जी रहा है
खुद की ऊष्मा खुद तापना चाहता है
कहीं अकेले किसी पर्वतीय हरियाली
मनचाहे फूलों का एकल बन माली
भाव माला को वरण करना चाहता है
खुद की ऊष्मा खुद तापना चाहता है
सबकी सोचता है उसकी न कोई सोचता
घर की अनिवार्यता घर रहता है खोजता
सबकी निभाता मनचाही कामना बांटता है
खुद की ऊष्मा खुद तापना चाहता है
अब उसे लगता है अपने से है दूर चली गई
दायित्व निर्वहन के नाम दिनचर्या छली गई
यह भीड़ यह व्यस्तता मौन में काटता है
खुद की ऊष्मा खुद तापना चाहता है।
धीरेन्द्र सिंह
07.08.2025
11.01
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