अभी भी सलवटें सुना रहीं हैं दास्तान
मौसम ने ली थकन भरी अंगड़ाई है
चादर में लिपटी देह गंध भी बुलंद है
एक अगन हौले से गगन उतर आई है
मन के द्वार पर है बुनावट सजी रंगीली
समा यह बहकने को फिर बौराई है
खनकती चूड़ियों में प्रीत की रीत सजी
उड़ते चादर में सांसो की ऋतु छाई है.
एक अनुभव में ज़िन्दगी, बन्दगी सी लगे
शबनमी आब है, मधु बनी तरूणाई है
छलकते सम्मान में निज़ता का आसमान है
चादर पर पसरी रोशनी फिर खिलखिलाई है.
इस चादर में हमारे गागर के हिलोरे हैं
कुछ अपने हैं कुछ सुनामी दे पाई है
बांटने से गुनगुनाए ज़िन्दगी की धूप
गुंईया बन गए हम यह बोले तरूणाई है.
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