शनिवार, 2 अगस्त 2025

गांव

 गलियां सूनी हैं पहेलियों के पांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव


राहों की माटी पकड़ रही हैं छोड़

धूल बनकर दौड़ती जिंदा कहां मोड़

खेत-खलिहान लगे कौवा की कांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव


जेठ की भरी दोपहरी सा है सन्नाटा

चहल-पहल खुशियों को लगा चांटा

गिने-चुने लोग तरसे व्यक्तियों को छांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव


बंटाई व्यवस्था पर अधिकांश हैं खेत

घर एक दूसरे से छुपाते हैं खबर, भेद

परिवार, खानदान में हैं नित नए दांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव


शाम ढलते ही होती कुछ वही सरगर्मियां

नशा विभिन्न प्रकार के रचते हैं शर्तिया

ग्रामीण संस्कृति में गायब हो रहे हैं गांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव।


धीरेन्द्र सिंह

02.08.2025

15.08




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