गलियां सूनी हैं पहेलियों के पांव
निदिया न आए नयन भरे हैं गांव
राहों की माटी पकड़ रही हैं छोड़
धूल बनकर दौड़ती जिंदा कहां मोड़
खेत-खलिहान लगे कौवा की कांव
निदिया न आए नयन भरे हैं गांव
जेठ की भरी दोपहरी सा है सन्नाटा
चहल-पहल खुशियों को लगा चांटा
गिने-चुने लोग तरसे व्यक्तियों को छांव
निदिया न आए नयन भरे हैं गांव
बंटाई व्यवस्था पर अधिकांश हैं खेत
घर एक दूसरे से छुपाते हैं खबर, भेद
परिवार, खानदान में हैं नित नए दांव
निदिया न आए नयन भरे हैं गांव
शाम ढलते ही होती कुछ वही सरगर्मियां
नशा विभिन्न प्रकार के रचते हैं शर्तिया
ग्रामीण संस्कृति में गायब हो रहे हैं गांव
निदिया न आए नयन भरे हैं गांव।
धीरेन्द्र सिंह
02.08.2025
15.08
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