गुरुवार, 7 नवंबर 2024

बना सपने

 कहां से कहां तक फैले हसीन अपने

यहां-वहां सारे जहां दिखे बनारसी सपने


दिल की हर खनक दर्शाते हैं बनारसी

जहां कहीं होते यह बन जाते सारथी

समूह संग मिलकर उत्थान लगते जपने

यहां-वहां सारे जहां दिखे बनारसी सपने


व्यक्तित्व भी कृतित्व भी भवितव्य भी

सबका कल्याण चाहें हर्षित हों सभी

जो भी खुलकर मिला गूंजे नाम अंगने

यहां-वहां सारे जहां दिखे बनारसी सपने।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2024

11.57

आहट

 किसी गुनगुनाहट की आहट मिले

वही ताल धमनियां नचाने लगे

संयम की टूटन की आवाज़ें हों

यूं लगे रोम सब चहचहाने लगे


न जाने यह कैसे उठी भावनाएं

अकेले ही क्यों हकलाने लगे

कभी लगे शोषित तो कभी शोषक

खुद से खुद को क्या जतलाने लगे


यादें और कल्पनाएं मंसूबा झुलाएं

अधखुले चाह गहन धाने लगे

यह यादों का इतना तूफानी समंदर

किनारे पर मन ज्योति जगाने लगे


कहां बस गयी कोने मस्तिष्क में

मन वर्चस्वता ध्वज फहराने लगे

ना मिले ना बोले पर यह अपनापन

बंदगी को जिंदगी में उलझाने लगे।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2024

08.47




फफनते

 फफनते हुए दूध

उफनते हुए मन

दोनों को चाहिए

शीतल छींटे,

क्या होगा जब दिखें व्यस्त

आंखें मींचे,


यह परिवेश पूर्ण जोश

लगे हैं आंख मीचे खरगोश

ऐसा क्यों होता है

गौरैया का कहां खोता है,

यह कैसी रचना रीत

अनगढ़ सी हो प्रतीत,


लिखी जा रही हैं असंख्य

नित हिंदी कविताएं,

रचना से बड़ा अपना चेहरा

बड़ा कर दिखाएं,

नई चलन समूहों की 

फफने चेहरा उफने क्रीत; 


हिंदी फ़फ़न रही है

अभिलाषाएं उफन रही है,

गौरैया बिन घोसला

मुंडेर और बालकनी तलाश रही,

किसने चलाई यह भीत

शीतल छींटे रुके किस रीत।


धीरेन्द्र सिंह

07.11.2024

19.21




बुधवार, 6 नवंबर 2024

समूह गुंजन

 हिंदी लेखक समूह

कैसा भाषा व्यूह

अंग्रेजी शब्द प्रयोग

हिंदी रही दुह


कम भाषा ज्ञानी

संस्कृति ओंधे मुहं

अधजल गगरी छलके

तड़पे हिंदी रूह


गुंजन धर्मा अर्धपढ़ा

प्रतियोगिता आह उह

शब्द अनर्थ बतलाएं

चुप वह समूह


हिंदी लेखक गुंजन

अपूर्ण हिंदी ठूह

बेबस सदस्य, मौन

प्रतिकार अशुद्ध, शूर


श्रेष्ठ हैं समूह

गति उनकी गूढ़

अधपके समूह सीखिए

हिंदी श्रेष्ठ आरूढ़।


धीरेन्द्र सिंह

07.11.2024

12.17




मंगलवार, 5 नवंबर 2024

छठ

 आस्था की अर्चना के

पहुंचने से पहले

तालाब तीर बिछ जाती हैं

कामनाएं,

खिंच जाती हैं लकीरें

प्रस्तुत करते स्थल दावे,


शाम और सुबह

होगा अद्भुत दृश्य,

जल और सूर्य का

गहन अलौकिक संबंध

जहां व्रती अर्चनाएं

ही जाएंगी आच्छादित

उगते सूर्य रश्मि को

गठिया लेने प्रसाद सा,


महानगर की कुछ दृष्टि

नहीं छुपा पाएंगी

अपना हतप्रभ कौतुकता,

जल में खड़े होकर

सूर्य उपासना?,

क्यों? कैसे? किसलिए?

हर वर्ष यह तालाब तट

सिखलाता है छठ महात्म्य

कुछ अबूझे लोगों को,


संस्कार, संस्कृति, सद्भावना

अपनी शैली शुभ कामना

तालाब किनारे की तप साधना

लेकर भौगोलिक विस्तार

छठ का कर रही प्रसार

रवि जल का कलकल

आस्था का यह अद्भुत बल,


कवि सदियों से लिखते आ रहे

चाँद का जल पर प्रभाव,

क्यों नहीं लिखते उन्मुक्त

जल का सूर्य से यह निभाव।


धीरेन्द्र सिंह

05.11.2024

15.58



सोमवार, 4 नवंबर 2024

नारी और पुरुषार्थ

 अग्नि का स्त्रीलिंग होना

योजनाबद्ध शब्दावली नहीं

और

नदी का स्त्रीलिंग होना

एक व्याख्यावाली नहीं

दोनों सृष्टि संवाहक हैं

एक शीतल दूजा पावक है;


आप में भी

पाता हूँ जल अग्नि का

संतुलन,

नीर का है अथाह संयोजन

अग्नि का सुरभित प्रयोजन,

यह मात्र कथन नहीं है

सदियों का भाव जतन है;


पुरुष आदिकाल से

निर्भर है नारी पर

जल और अग्नि के लिए

जिससे पूर्ण कर अपनी भावना,

करता है पुरुषत्व का प्रदर्शन 

पुरुष!


नारी को जीया जा सकता है

नहीं कर सकता पुरुष

प्यार नारी को;


इन तथ्यों को अनदेखा कर

कहता है पुरुष कि, वह

करता है प्यार नारी से,

सदियों से यही झूठ

लिखा जा रहा

बोला जा रहा

बोया जा रहा,


नारी मौन 

अग्नि से जीवन

और जल से शीतलता

करती जा रही प्रदान,

नारी ही है धूरी प्यार की

नारी ही है प्यार जननी

पुरुष अपने पुरुषार्थ में

गलत रचे जा रहा,


पुरुषार्थ पर मुग्धित पुरुष! 

कभी देखो, कभी समझो

नारी को,

एक प्रचंड जल प्रवाह मिलेगा

और

मिलेगा धधकता दावानल,

जिसे निरख बंध जाएगी घिग्गी

छोड़ भागोगे उन्मादी प्यार की बग्घी।


धीरेन्द्र सिंह

04.11.2024

17.58




रविवार, 3 नवंबर 2024

साहित्य

 गुदगुदाती अनुभूतियां

कल्पनाओं में रच

दर्शाती है मुद्राएं

करती है थिरकन 

तब सजा देता है भाव

विभिन्न प्रतीक, बिम्ब से,


आप भी होती हैं पुलकित

पढ़ कर उसे

गढ़ कर खुदसे,

जैसे होता मन

अभिव्यक्तियों में गूंथ

आप को लिखने से;


खिल जाता है साहित्य

निखर जाता है कवित्व

रचना बोल पड़ती है,

रचनाकार है

पाठक और पाठिका हैं

और हैं

आप;


कविता बहती रहती है

छू लेने को कभी

साहित्य।


धीरेन्द्र सिंह

03.11.2024

20.10