किसी गुनगुनाहट की आहट मिले
वही ताल धमनियां नचाने लगे
संयम की टूटन की आवाज़ें हों
यूं लगे रोम सब चहचहाने लगे
न जाने यह कैसे उठी भावनाएं
अकेले ही क्यों हकलाने लगे
कभी लगे शोषित तो कभी शोषक
खुद से खुद को क्या जतलाने लगे
यादें और कल्पनाएं मंसूबा झुलाएं
अधखुले चाह गहन धाने लगे
यह यादों का इतना तूफानी समंदर
किनारे पर मन ज्योति जगाने लगे
कहां बस गयी कोने मस्तिष्क में
मन वर्चस्वता ध्वज फहराने लगे
ना मिले ना बोले पर यह अपनापन
बंदगी को जिंदगी में उलझाने लगे।
धीरेन्द्र सिंह
08.11.2024
08.47

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