बसंत पंचमी
दे बौद्धिक नमी
उत्सर्जित कल्पनाएं
सुसज्जित हों आदमी
सरस्वती अर्चना
आशीष की ना कमी
आसक्ति जितनी अधिक
ज्ञानवान उतनी ज़मी
हर घर निनाद हो
बसंत से हैं हमीं
यह परंपरा पूर्ण
सर्जनाएँ दे शबनमी।
धीरेन्द्र सिंह
01.02.2025
20.37
बसंत पंचमी
दे बौद्धिक नमी
उत्सर्जित कल्पनाएं
सुसज्जित हों आदमी
सरस्वती अर्चना
आशीष की ना कमी
आसक्ति जितनी अधिक
ज्ञानवान उतनी ज़मी
हर घर निनाद हो
बसंत से हैं हमीं
यह परंपरा पूर्ण
सर्जनाएँ दे शबनमी।
धीरेन्द्र सिंह
01.02.2025
20.37
घूरे पर बैठा व्यक्ति
सोचता
कितनी ऊंचाई है
क्या किसी ने
जिंदगी यह पाई है,
घूरा यहां गौण है
व्यक्ति ऊपर बैठा
सिरमौर है,
प्रमुखतया
गोबर से निर्मित घूरा
चला जाएगा
बनकर जैविक खाद
अनाज का करने उत्पाद,
घूरे पर बैठा व्यक्ति
रहेगा सोचता
हर्ष के अतिरेक में
फिर ढूंढेगा कोई घूरा
देख अवसर बैठ जाएगा
और व्यक्ति सोचेगा
अबकी शायद घूरा
उस व्यक्ति में ही
फसल उगाएगा,
चाहत
विवेकहीन
चटोरी होती है,
जब भी करती है संचय
जिंदगी
घूरा होती है।
धीरेन्द्र सिंह
31.0१.2025
09.28
रात यादों में सो ही जाती है
जिंदगी अक्सर खो जाती है
अलाव दिल के रहते जलते
ठिठुरन फिर भी सताती है
कर्म की अंगीठी पर कामनाएं
धर्म की अनबुझी कल्पनाएं
चाहतें उभरती जगमगाती है
अपने भीतर ही अपनी थाती है
चले कुछ दूर बदल दी राहें
व्योम की कल्पना पसरी बाहें
निकटता घनिष्ठता अविनाशी है
जीवंतता भोर हर जिज्ञासी है
कहां से कब तलक क्या मतलब
राह तकती है कदमों का अदब
शून्य में शौर्य जलती बाती है
अग्नि जिस रूप में हो साथी है।
धीरेन्द्र सिंह
29.01.2025
19.28
पथरीली राह
और राह के दोनों ओर
मीलों दूर तक
फैला मैंग्रोव,
अपनी जड़ों की
बनाए पकड़
सागर की लहरें
समझें धाकड़,
रोज गुजरते हैं कदम
राह के पत्थरों से
करते बातें;
राह के दोनों ओर
फैले मैंग्रोव से
आती चिड़ियों की
विभिन्न चहचहाअट
खींच लेती हैं दोनों बाहें
अपनी ओर
कर आकर्षित
और मैंग्रोव के दोनों कंधे पर
रख अपना दोनों हाँथ
चलते जाता हूँ
पथरीली राहों पर,
पहुंच जाता हूँ
सागर किनारे और
हवाएं सिमट आती हैं
मेरे बाजुओं में
सामने अटल सेतु
बौद्धिक योग्यता का
प्रमाण दर्शाता है
और सागर की लहरें
कदम चूमने को
हो जाती हैं आतुर
शायद हरना चाहती हो
पथरीली राहों की चुभन,
ऐसे ही मिलती है जिंदगी
प्रतिदिन सूर्योदय संग
जीवन की पथरीली राहों में
होते हैं मैंग्रोव
जिनसे जुड़कर
पहुंचा जा सकता है
जीवन सागर।
धीरेन्द्र सिंह
29.01.2025
18.08
समूह
एक प्राकृतिक व्यूह
सृष्टि में
दिखता है चहुंओर
इसीलिए
जीवन है एक शोर,
शांति या सन्नाटा
जीवन का है
ज्वार-भाटा
सागर जल की तरह
रहता है आता और जाता,
शीत ऋतु आते ही
हो जाता प्रमुख समूह
असंख्य विदेशी पक्षियों संग,
सागर तट पर ढूर-ढूर तक
अधिकांश धवल कुछ रंगीन
समूह हो उठता है मुखरित,
प्रातः सागर तट पर
साइबेरियन पक्षी नाम से
होते हैं सम्मिलित
कई विदेशी पक्षी
और सागर तट भर जाता है
अनजान, अपरिचित, आकर्षक
असंख्य, अद्भुत पक्षियों से,
अटल बिहारी सेतु
कराता है दर्शन इसका
गुजरते वाहनों को,
अब बहुत कम संख्या में
रह गए हैं पक्षी
हो गया है समाप्त इनका महाकुम्भ
तट को साफ कर रहे हैं
समूह गठित पक्षी।
धीरेन्द्र सिंह
28.01.2025
04.03
चलिए न जिस तरह ले चलती हैं जिंदगी
यह भला क्या बात हुई चाहिए न बंदगी
उड़ान के लिए एक छोर चाहता है बंदगी
वरना उड़ा ले जाएगी अनजानी जिंदगी
अच्छा लगता है अदाओं की भी नुमाइंदगी
यह भला क्या बात हुई चाहिए न बंदगी
एक हो आधार तयशुदा ठहराव का द्वार
धूरी हो तो मन बहकने का है यह आधार
जिंदगी एक नियमित भटकाव क्यों शर्मिंदगी
यह भला क्या बात हुई चाहिए न बंदगी
कहां कब होता मृदुल भटकाव बताता है कौन
मधुरतम भावनाएं लहरतीं है पर होती है मौन
जिंदगी व्यस्तता में लड़खड़ाते ढूंढती है जिंदगी
यह भला क्या बात हुई चाहिए न बंदगी।
धीरेन्द्र सिंह
25.01.2025
21.30
चीख निकलती है हलक तक आ रुक जाती है
यह मात्र वेदना है या एक विद्रोह की आंधी है
गरीबी, लाचारी में चीख अब बन चुकी है आदत
मजबूरियां चीखती रहती है झुकी अपनी वसाहत
उनपर लगता आरोप सभी उद्दंड और उन्मादी हैं
यह मात्र वेदना है या एक विद्रोह की आंधी है
किस कदर कर रहे हर क्षेत्र में आयोजित चतुराई
जिंदगी रोशनी की झलक देख खुश हो अकुलाई
हर कदम जिंदगी का बहुत चर्चित और विवादित है
यह मात्र वेदना है या एक विद्रोह की आंधी है
कब चला कब थका कब उन्हीं का गुणगान हुआ
चेतना जब भी चली भटक आकर्षण अभियान हुआ
साहित्य बिक रहा पर कुछ अंश प्रखर संवादी है
यह मात्र वेदना है या एक विद्रोह की आंधी है।
धीरेन्द्र सिंह
24.01.2025
21.01